संदेश

'जर्द आँखें'

एक पल इधर बुझ रहा है, एक लम्हा उधर भी जल रहा होगा, एक आह मैं दबाये बैठा हूँ, एक दर्द उधर भी पल रहा होगा, वोः रात अब भी सुलगती है मेरी सांसों में, तेरा जिस्म भी रातों को जल रहा होगा, है कोई राज़ उन तारीक़ जर्द आँखों का, हाँ कोई ख्वाब पलकों से ढल गया होगा.

'वोः तेरा है'

इस दिल में एक एहसास है, जो तेरा है, इन पलकों पर एक ख्वाब है, जो तेरा है, इस दुनिया दारी काम काज से बोहोत अलग, एक लम्हा है जो ख़ास है, वोः तेरा है, इन जाली रिश्तों और रस्मों से दूर कहीं, ये नाजुक सा जो साथ है, वोः तेरा है, जो हमने मिलकर जोड़ा था, हाँ उस दिल का, एक टुकड़ा मेरे पास है, जो तेरा है, बस यह ख्वाइश है, कभी जो ऐसा कह पाऊं, जो कुछ भी मेरे पास है, वोः तेरा है.

एक रात का ख़याल

एक शाम का गर्म पोशीदा सा ख़याल, जिसे ओढ़ कर एक रोज़, बैठूं मैं तेरे साथ और रात कर दूँ, एक रात का शोख़ सर्द सवाल, जिसे लबों से तेरे लबों पे रख दूँ, ऊँगली से नाजुक सी नंगी पीठ पर तेरी, उगाऊं यह दफ़्न रिश्ता,बढ़ न पाया जो, इस मस्नूई तेहज़ीब के खारे सख्त पानी में, तेरी नर्म सांसों के फंदों में उलझी रहे ये साँस मेरी, और तेरे गलते जिस्म की आंच में मेरा जिस्म भी पिघल जाये, बस एक सुलगती रात का ख़याल है जो बुझा दूँ, तेरी आघोश में सिमटा हुआ एक दिन जला दूँ.

"बेबस उजाले"

उजाले बेबस से हैं अँधेरे गाँव में, धुप नहीं रिसती जाड़ दरख्तों की छाओं में, बेक्स परिंदे सय्याद के हम नफस हो बैठे, ये कौन सा रंग बिखरा है फिजाओं में, अदीब तुम सही पर हमसे बुतपरस्त नहीं, तुम हमसे हार जाओगे मियां दुआओं में. वो घूरता रहा मुझे ये साँस चलती रही, असर वो अब ना रहा सनम तेरी निगाहों में,

"मकान" भाग -1

दाई की बूढ़ी हड्डियों सी खड़खड़ाती ईंटों की सड़क, रामकिसुन की चौड़ी पीठ सा चबूतरा और फिर रामबहादुर चच्चा की ऊँची बुलंद आवाज़ सा लोहे का फाटक. वहीँ फाटक से मुहतात सटा खड़ा घर का दरबान, हरा अशोक का पेंड जो चारों पेहेर, ३६५ दिन बिना थके सतर खड़ा रहता है. दरबान से नज़र हटाए और घर की दोनों बहुओं से अदब फरमाइए, बाएं पहलू पीले रंग की फुलकारीदार घुँघरू जड़ी साड़ी में सर तक पल्लू डाले खनकती घर की घरेलु बड़ी बहु 'अमलतास' और दाएं पहलू, कुंदन लाल रेशमी गोते जड़ी साड़ी में घर की जदीद छोटी बहु 'गुलमोहर'. अब नज़र उठायें और बिस्मिल्लाह सलाम करें बाबा के माथे की झुर्रियों की सी दरारें समेटे अज़ीम मकान से. पिछली पीढ़ियों की सूखी पपड़ी छोड़तीं दीवारें और खम्भे की छड़ी को टेके खड़े हुए बूढ़े छज्जे. घर के चार एहम कमरों में बस्ते थे घर के कुछ बोहोत ही खास लोग, बड़ी मम्मी का मरकाज़ी कमरा और उससे सटे अगल बगल बने बाकि के ३ कमरे. दीवान-ए-आम से होते हुए (जहाँ अक्सर हम क्रिकेट खेला करते थे) घर के एहम हिस्से दीवान-ए-खास में दाखिल होते ही ढलवान पर चार कदम की एक छोटी चढ़ाई के बाद बाएं हाथ पर खुलता है बाबा का कमरा

"मुकम्मल"

रात जब ख्वाब के सीने पे रखा सर मैंने, तेरी आगोश की गर्मी सी कुछ महसूस हुई, रात जब दूधिया कोहरे ने छुआ चेहरा मेरा, तेरे हाथों की शोख नरमी सी महसूस हुई, मुझे मालूम है की तू मुझे मुकम्मल नहीं, तभी तो अक्सर तुझे ख्वाब में जी लेता हूँ, मेरे होठों पे रखी बात तू कह देती है, तेरे सीने में जमा दर्द मैं छू लेता हूँ.

ख़ुशी भाग - 4

ख़ुशी का एक और सिद्धांत है जब अक्सर लोग अपनी आज की वास्तविकता को छोड़ अपने अतीत के पर्दों में झांकते हैं और अपनी बुद्धिमत्ता के तराजू में अपने आज और कल को तोलते हैं इस विचार के साथ की अतीत के कठिन वक्त की कमी पूर्ती भविस्य में हो जाएगी, कठिन वक़्त है गुज़र जायेगा या गुज़र गया और बेहतर दिन बस कुछ कदम और दूर हैं, अतीत का कोहरा भविष्य में छट जायेगा. और इस आशा में मन को भावन करते कई युवा वयस्क में तब्दील हो गए, वयस्क अधेड़ और अधेड़ बूढ़े हो चले. जीवन सूची के विभिन्न चरणों का लेखा जोखा लिए खुशी और शोक के आडे टेढ़े गुड़ा भाग को करते करते इंसान जीना तो भूल ही गया. एक बड़े कारखाने में लगी हेवी ड्यूटी मशीन के पुर्ज़े जिन्हे घड़ी-घड़ी कसा जाता है, क्योंकि पुर्ज़ा ढीला हो जाये तो बोहोत कष्टप्रद शोर करते हैं, कारखाने का मैकेनिक अक्सर आके उन्हे चूड़ियों से फिर कस जाता है जिससे कारखाना चलता रहे. इंसान भी बस दुःख नाम के इन पुर्ज़ों को बस उम्र भर कसता रहता है जिससे की ये कारखाना भी चलता रहे.

खुशी भाग - 3

अब व्यक्ति कैसे खुश रहे जब दुर्भाग्य कुंडली पर कुंडली मारे बैठा हो, देखने वाली और सराहने वाली बात है की जन ऐसी स्तिथियों में भी खुश मिले, भले ही शर्मा जी अपनी परिस्तिथियों को कोस रहे थे पर खुश थे, खुश क्यों?? खुश थे पड़ोस के गुप्ता जी को देख कर जिनकी स्तिथि उनसे भी गई गुजरी थी, अजीब विषय है और कितना अजीब व्यवहार है इस जीव का जिसे हम इंसान कहते हैं. अब गुप्ता जी ने मई के महीने में आम ना खाकर ककड़ी क्यों खाई इसकी तो एक वजह यह भी हो सकती है की गुप्ता जी का पेट ख़राब हो, दमा लगा हुआ हो उन्हें, मैं ये दमे वाली बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि गुप्ता जी का पाखाना दिन में चार बार साफ़ होता था. अब आप लोग भले ही शर्मा जी और गुप्ता जी के बारे में सोच रहे हों पर मैं सोच रहा हूँ उस आम वाले के बारे में जिसके आम शायद कुछ कम बिके क्योंकि गुप्ता जी ने इस बार आम नहीं खाए और मैं सोच रहा हूँ उस भंगी के बारे में जिसकी कमाई गुप्ता जी के दमे ने बढ़ा दी. अब आम वाला किसे कोसे गा ?? भंगी को, गुप्ता जी को या फिर शर्मा जी को ये मैं नहीं जानता, कब कहाँ कौन सी कड़ी कैसे जुड़ जाये यह बस मष्तिष्क का खेल है और वही जनता है.

ख़ुशी : भाग-2

पिछले अध्याय से आगे बढ़ आज यह देखते हैं कि एक भौतिकवादी/धनी सोच और ख़ुशी का तालमेल कैसा बैठता है. धन है तो धनी है, जैसे जैसे धन का पारा चढ़ता है ख़ुशी भी अपेक्षाकृत बढ़ती है, पर यह हर किसी पुरुष, महिला या किन्नर इत्यादि पर पूरी तरह से लागू नहीं होता, अब ऐसा क्यों है यह आप भली भांति जानते हैं, यह रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बखूबी नमूदार है, ऐसा है आकांक्षित मन के कारन जो अक्सर आप को किसी मेहेंगी विलासित "लाल ऑडी A4" में किसी लाल बत्ती पर काले चढ़े हुए शीशों के पीछे दिख जाएगा. विलासिता में गले तक डूबे इस व्यक्ति विशेष का सुख और पानी घुटनो तक तब आ जाता है जब बगल में दाहिनी ओर एक "पीले रंग की लैंबोर्घिनी गलार्डो" आके रूकती है और दो बारी व्रूहूम...व्रूहूम...करती है, बस अब क्या व्यक्ति विशेष बस शेष रह जाता है और विशेष लाल से पीला हो जाता है. अब इस प्रकार से देखें तो ना ही लाल ऑडी A4 वाले सज्जन पूर्ण रूप से धनि और खुश हैं, ना ही पीले रंग की लैंबोर्घिनी गलार्डो वाले सज्जन क्योंकि "बुगाटी वेरोन" तो उससे भी मेहेंगी है.

खुशी - भाग 1

ख़ुशी की सापेक्षता का विवरण करें तो परिणाम तुलनात्मक आता है. जीवन की क्रमागत उन्नती को देखें तो यह एक सचेत मानसिक प्रक्रिया और एक विकसित मूल्यांकन है जो जिन्दगी कैसे जी जाये या फिर ज़िन्दगी कैसी होनी चाहिए उसके मानक तय करता है, अब इसे मैं अभिधारणा ही कहूंगा. ख़ुशी के मानक व्यक्ति विशेष के द्वारा बनाये हुए एक ग्राफ की तरह हैं जो मनमाने रूप से ऊपर और नीचे जाता रहता है. कभी कोई क्रिया, व्यक्ति या वास्तु ख़ुशी देती है तो कभी वही शोक का कारण बन जाती है. कुछ लोग कम में खुश है और कुछ लोग इसमें अपनी असफलता ढूढ़ लेते हैं की वे करोड़ों रुपये नहीं जुटा पाए. ख़ुशी एक अनिर्धारित मान्यता या अनुभूति है जिसका आंकलन एक निर्धारित सोच के साथ करना चाहिए. तभी तो कुछ लोग बुरी परिस्तिथियों में भी खुश रहते हैं और कुछ लोग अनुकूलता में भी रोते फिरते हैं, अब ऐसी खुसी के पीछे भागना भी व्यर्थ सा लगता है, दिमागी टंकड़ है सिक्का कभी चित पड़ता है तो कभी पट और कभी सीधा खड़ा हो जाता है.

"सुबह का अख़बार"

बेबसी का वो आलम जिया है कभी, जब गहरी सांसों से होती हुई आह, कोख तक उतर जाती है, ज़हन के अँधेरे कोनो में, सुबकिया लेते उजाले को टटोलती, उन रूखी हथेलियों ने छुआ है कभी, सुलगती आग में लिपटे घर, और उसके धुंए से लिपटी रूहों, की घुटन सुनी है कभी, गिड़गिड़ाती बेबसी और, हवस के क़दमों में लिपटी हुई आबरू, का उधड़ा जिस्म सेहलाया है कभी, जब भी सुबह का अख़बार उठाता हूँ, तो ये सब महसूस करता हूँ मैं.