ग़ज़ल
हाँ मुझे गुमनाम रहेने दो,
इस शक्शियत को आम रहेने दो,
इन खाहिशों के दलदलों ने दम निकाला,
बस अब् कोई आगाज़ रहेने दो,
अब् कोई अंजाम रहेने दो,
इंसानियत काफी, खुदा बनकर क्या करना,
तुम बस मुझे इन्सान रहेने दो,
हमने आधी उम्र भर सूरज उठाया है,
अब् कुछ दिनों की शाम रहेने दो।
इस शक्शियत को आम रहेने दो,
इन खाहिशों के दलदलों ने दम निकाला,
बस अब् कोई आगाज़ रहेने दो,
अब् कोई अंजाम रहेने दो,
इंसानियत काफी, खुदा बनकर क्या करना,
तुम बस मुझे इन्सान रहेने दो,
हमने आधी उम्र भर सूरज उठाया है,
अब् कुछ दिनों की शाम रहेने दो।
टिप्पणियाँ
अब् कुछ दिनों की शाम रहेने दो।
outstanding line man!!! realy nice...wish i could have written it....ur progress is amazing....really nice...