पत्थर के साए
वो साए पत्थर के थे, दरारों से धुप छलकती थी, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी, अधूरे से मौसम थे वहां, उनकी बातें भी झूटी थीं, कभी तेज़ाब सी बारिश तो कभी चिलकती धुप में, उस घर की छतें टूटी थीं, उस दर की हालत जार थी, वो चौखट सुलगती थी, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी, उस वक़्त की चोली से, थमता कहाँ खुशियों का दामन, एक पाओं भी आ सके, छोटा सा आगन, थी सिसकियाँ ठेहेरी सी, हर् आह पलट ती थी, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी, साहिल ही जैसे सिमट के, क़दमों पे आ पड़ा, दो बूँद पानी भी नहीं, सूखा घड़ा, इच्छाएं जैसे बर्फ हों, जमके पिघलती थीं, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी।