दामन-ए-कोह
ये हल्के, दूधिया बादलों का कोसा, इस दामन-ए-कोह में तेरे हल्के सफेद आँचल-सा बह रहा है। और तेरे ज़ेहन की ख़ामोशी इस मंज़र में सरशार है। इस पसीजती ओस में तेरी छुअन की ख़ुशबू है, और इस फुहार में तेरी ठंडी साँसों की नमी। तेरा अक्स घड़ी भर तो दिखता है इस धुंध में… और फिर मिट जाता है। मलाल उठता है कि तू यहाँ मेरे इर्द-गिर्द नहीं है। बस तेरा ख़याल है — जो हर पहर, हर मंज़र में, हर साँस धड़कता रहता है, ज़िंदा रहता है इस ज़ेहन में। जी चाहता है कि ये ख़ूबसूरत मंज़र तू मेरी आँखों से देखे — और मैं तेरी। ज़मीन की गोद में उतर आएं इन बादलों-सा, तू भी कभी मेरी बाँहों में सिमट जाए। और बह जाएँ हम — कहीं दूर, इस धुंध ke saye में, जहाँ न वक़्त हो, न लोग, न कोई आवाज़। जहाँ सिर्फ़ एक मैं हूँ… और एक तुम।