संदेश

सितंबर 24, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
उनका आँचल जो कभी ठिया था, हमारा मुकद्दर भी कभी जिया था, कई नज़मो को का ता हमने, कई फुलकारियों को सिया था , हर ख्वाब को सच करने की ज़हेमत उठाई, अजीब लेहेजा था उन मिया का, यूँ ही एक दफा नींद में, वक्त के परिंदों को वश में किया था, पुर असरार (संदेह से भरी हुई) नज़र, महाशर(क़यामत लाने वाली ) थी, उनकी हर अदा पे हर कुछ तस्लीम(दाओ पे करना ) किया था, वो खुदा, तो रूह आफजा थी, आज रंग इंसानी है उस खुदा का .

ग़ज़ल

वक्त तपता रहा पाओं जलते रहे, जैसी सड़कें मिलीं वैसे चलते रहे, कई सौदे किए दिल की आवाज़ से, कोई इरफान थे कोई बनते रहे, भीड़ में ही खड़ा एक इंसान हूँ, ख्वाब जलते रहे ख्वाब पलते रहे, जिंदगी का बड़ा ही अजब खेल है, वो उलझती रही, हम सुलझते रहे, शेर-ऐ-शाहे सवार की फित्त्रत रही, कई धक्कों से गिर के सम्हलते रहे, तुझसे शिकवा नही कुछ शिकायत नही, ये तो अरमान हैं बस मचलते रहे।