"सोचता हूँ"
सोचता हूँ कि, एक नज़्म बुनूँ तेरे लिए, जिसे ओढ़ कर तू सर्दियों के, कई रोज़ काट दे यूँ ही, तखत पर बैठे हुए, और दो छल्ले तोड़ कर मिसरों के ग़ज़ल से, तेरे कानो में सजा दूँ, कभी जो ओढ़ते हुए, नज़्म उलझ जाये मिसरों से, और कान खिंच जाये, तोह बस 'आह' कि आवाज़ करके, मुस्कुरा देना.