"गुड़िया"


एक गुड़िया की कहानी है ये,
गुड़िया...जो किसी उम्मीद की गुलाम नही,

जो सपनो की छोटी छोटी सी पर्चियाँ बनाकर,
उनसे खेला करती है,

इंद्रधनुष से रंग चुरा कर,
ख्वाबों की तवीरें बनाती है ये गुड़िया,

सूनेपन के साज़ पर गुनगुनाती, मुस्कुराती, अठखेलिया करती,
अपने अरमानो की ठंडक में सिमटी, गर्म उजालों सी उजली,

मैने अक्सर उसे फूंको से ज़ज्बात बुझाते देखा है,
ज़िंदगी की धीमी सी मद्धम सी लॉ में मुस्कान के गर्म गर्म पोए पकते देखा है,

एक ऐसी गुड़िया जो खामोसी में भी आवाज़ सुना करती है,
चुप्पी से अल्फ़ाज़ बुना करती है,

कल कल करती किसी नदी की एक तस्वीर,
जिसकी गोद में सूरज भी शीतल हो विलीन हो जाता है,

सूखे हुए दरख़्त के गर्त में, खिलती मुस्कुराती एक कली के जैसी,
या आगन में सुबहा चढ़ती हुई धूप के जैसी,
जिसके स्पर्श भर से ही,
आगन की क्यारी में बंद मुरझाई पड़ी
रिश्तों की कोंपलें खिल उठती हैं.

टिप्पणियाँ

Rishi ने कहा…
bahut sundar likha hai Gaurav..
मैने अक्सर उसे फूंको से ज़ज्बात बुझाते देखा है

badhai..!!
Meeta Pant ने कहा…
Sundar kavita Gaurav . Aap ka blog achchha laga . Imaandaari se likhte hain .

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

खुशी - भाग 1

'जर्द आँखें'

" I " an Article