"मैं"
मैं सही हूँ, मैंने कुछ ग़लत नही किया, ये मेरी सोच है, मैं ये हूँ, मैं वो हूँ और न जाने क्या-क्या।
हम में से बोहोत हद तक लोग इस "मैं" ही जीते हैं, कभी बस में पीछे की सीट पर बैठा हुआ एक "मैं", कही बाज़ार में संभल के चलता एक "मैं" ,सड़क पे लडखडा के गिर पड़ने पर सेहेमता और शर्माता "मैं", तो कभी बिना टिकेट के पकड़े जाने पर बस कंडेक्टर से लड़ता "मैं", हर इन्सान में एक "मैं" ।
हर कोई अपने सीमित सोच और विचारों के दायेरे में ही अपने अस्स्तित्व को परोसता है, एक "मैं" ही हमें हर पल धक्का देता है ख़ुद को प्रस्तुत करने के लिए।
कई महान हस्तीयों के उदाहरण, और हमारे समाज का रचित ढाचा, जो जीवन की कुछ बेसिक परिभाषाओं पर टिका है, में पनपता मस्तिष्क जिसका अंकुरण कुछ इन्ही बेसिक परिभाषाओं में होता है, इस समाज के रचित ढाचे के अनुसार ही ढलना शुरू होता है, अब इनसे परे देख पाना किसी भी साधारण के लिए बोहोत मुश्किल है।
बोहोत ही साधारण सा उदाहरण-(कुम्हार एक मटके को मटके का आकार देता है तो वो मटका कहेलाता है )।
"मैं" इस रचित ढाचे का ही एक द्रिड भाग है।
क्रियाओं पे एक अपने ढंग की प्रतिक्रिया, अपने ढंग के विचारों का उपजना, समाज को अपने ढंग से प्रभावित करना, इन सबमें "मैं" की बोहोत सक्रियता है। अब कोई आपसे प्रभावित किस प्रकार हो रहा है, ये आपके "मैं" का ही खेल है।
अब् अगर मैं इस "मैं" के वजूद की बात करूँ, तो वो कुछ इस प्रकार है :-
एक "मैं" का वजूद दूसरे "मैं" से ही है, हम हमेशा ख़ुद को दूसरों की तुलना में ही आंकते हैं, हम अपने अस्तित्व को कभी अपने परिवार से जताते हैं तो कभी दोस्तों से, तो कभी किसी और से।
जारा कल्पना कीजिये की एक ब्लैक स्पेस, उसमे सिर्फ़ आपकी एक खोई सी सोच, और किसी चीज़ का कोई अस्स्तित्व नही, अब आप ऐसी स्तिथि में ख़ुद के वजूद को कहाँ आकोगे और किस के सामने।
या फिर प्रयोग के लिए :-
किसी बच्चे के जन्म लेते ही उसे एक अंधेरे कमरे में बंद कर दीजिये और उसे बस इतनी उर्जा देते रहिये की वो बस जीवित रहे, फिर ३३ साल बाद उसे नॉएडा के गोलचक्कर या फिर दिल्ली के बदरपुर बॉर्डर बस स्टाप पर लाकर खड़ा कर दीजिये, अब शायद आप उसकी स्तिथि की कल्पना कर सकते हैं।
सोचो तो कितना अजीब लगता है की हम अपने पूरे जीवन भर जिसे कमाते रहेते हैं जिस के पीछे भागते रहेते हैं, देखा जाए तो उसका कोई अस्स्तित्व ही नही ।
मैं ये सब बोल रहा हूँ अपने अनुभव के आधार पर, मैंने इस "मैं" के सकरात्त्मक और नकारात्त्मक दोनों पेहेलुओं को देखा है महसूस किया है एक सीमा तक, ( "सकरात्त्मक" और "नकारात्त्मक" , इस स्तर पर इनकी परिभाषाएं समाज के उसी रचित ढाचे के अनुसार हैं ) ।
इस "मैं" का आकार बोहोत छोटा है, ये बस आप तक ही सीमित है । और आपके "मैं" का वजूद आप के वजूद तलक ही जीवित है।
हर इंसान बदलता है, उसकी परिभाषाएं उसके विचार नए-नए मोड़ लेते रहेते हैं, मेरे साथ भी ऐसा कई बार हुआ है की जब मेरी ख़ुद की बनाई परिभाषाएं बिल्कुल उलट गईं, और वो भी कुछ इस कदर की उनपर हसी आए। ऐसा हुआ मेरे जीवन में व्याप्त अस्थिरता के कारन, अस्थिरता मेरे विचारों में, अल्पविकसित मस्तिष्क और कुछ सक्रिय परिस्थितियां जिन्होंने कुछ ऐसे प्रश्न खड़े किए जिनका उत्तर मेरे सोच के दायेरे से बहार था, अब उन सवालों पर मेरे कुछ उत्तर मेरे कुछ निष्कर्ष उस समाये जब मैं १३ या १४ साल का था मेरे लिए बड़े लोजिकल थे और आज मैं उन ही लोजिकल चीज़ों पर हस्ता हूँ , उस स्तर से अलग कुछ प्रसन अभी भी हैं जो मेरे विचारों से परे हैं, और उनके उत्तर खोजते-खोजते मेरे विचारों में एक सीमा पर अस्थिरता आने लगती है, अस्थिरता का कारन हैं कुछ सीमित विचार , अब क्या सही क्या ग़लत नही पता, व्याप्त परेशानियों का हल हर कोई अपने सीमित विचारों में ही निकाल लेता है, कोई उस पर अपने विचार थोपता है तो कोई अपने, ये अनछुआ सच ही हमारे "मैं" को गढ़ता है।
कैसा खेल, भिन्न भिन्न लोग भिन्न भिन्न नजरिये पर यहाँ पूर्ण कोई नही, अस्थिरता व्याप्त हर "मैं" में, अब सत्य क्या, कहाँ कौन जाने।
पूरा विश्व अस्थिरता से भरा अस्थिरता पर टिका।
मुझे स्थिरता दिखती है "शून्य" में, आँखें बंद की और शून्य पर ध्यान केंद्रित किया तो स्थिरता दिखी, क्यों ??.... क्योंकि वो शून्य है इसलिए, एक निराकार शून्य जिसके आकार की तुलना हम किसी आकार से नही कर सकते, सीमित या असीमित दायेरा कितना बड़ा और उस दायेरे में क्या ??.........उफ़ ...क्या सत्य, मेरी सोच में भी अब अस्थिरता आने लगी है, मेरा मस्तिष्क भटकने लगा अपने लक्ष्य से, कोई निष्कर्ष नही दीखता ।
शायद हर "मैं" का अपना एक शून्य है पर वो एक आकार में व्याप्त है। और उस आकार में न जाने कितना सांसारिक मसाला........ह्म्म्म्म ...., किसी ने सत्य ही कहा है "आँखें बंद कर लो तो उजाला, और खोलो तो अँधेरा"।
कई लोग अपने "मैं" को ही सब कुछ मानते होंगे , और इसमें कुछ ग़लत नही, ये ही जीवन का सार है, इस से अलग कुछ भी नही। अब देखिये ना मैं भी इस लेख के जरिये आप सब के सामने एक "मैं" को प्रस्तुत कर रहा हूँ , ये भी शायद आप सभी को एक अपने ढंग में प्रभावित करे।
मैंने अपने "मैं" को बोहोत समेटा है और मेरा "मैं" मेरे परिवार और कुछ चंद लोगो तक ही सीमित है, परिवार से इसलिए क्योंकि उनसे मेरा वजूद है, और उन चंद लोगो में वो दो लोग जिन्होंने मुझे मौजूदा वास्तविकताओं का ज्ञान कराया ( मैथिलि म`ऍम और अंजलि )।
मैं इन लोगों से ही अपने वजूद को आंकता हूँ , क्योकि इनके अस्तित्व के बिना मेरा कोई अस्तित्व नही।
हम में से बोहोत हद तक लोग इस "मैं" ही जीते हैं, कभी बस में पीछे की सीट पर बैठा हुआ एक "मैं", कही बाज़ार में संभल के चलता एक "मैं" ,सड़क पे लडखडा के गिर पड़ने पर सेहेमता और शर्माता "मैं", तो कभी बिना टिकेट के पकड़े जाने पर बस कंडेक्टर से लड़ता "मैं", हर इन्सान में एक "मैं" ।
हर कोई अपने सीमित सोच और विचारों के दायेरे में ही अपने अस्स्तित्व को परोसता है, एक "मैं" ही हमें हर पल धक्का देता है ख़ुद को प्रस्तुत करने के लिए।
कई महान हस्तीयों के उदाहरण, और हमारे समाज का रचित ढाचा, जो जीवन की कुछ बेसिक परिभाषाओं पर टिका है, में पनपता मस्तिष्क जिसका अंकुरण कुछ इन्ही बेसिक परिभाषाओं में होता है, इस समाज के रचित ढाचे के अनुसार ही ढलना शुरू होता है, अब इनसे परे देख पाना किसी भी साधारण के लिए बोहोत मुश्किल है।
बोहोत ही साधारण सा उदाहरण-(कुम्हार एक मटके को मटके का आकार देता है तो वो मटका कहेलाता है )।
"मैं" इस रचित ढाचे का ही एक द्रिड भाग है।
क्रियाओं पे एक अपने ढंग की प्रतिक्रिया, अपने ढंग के विचारों का उपजना, समाज को अपने ढंग से प्रभावित करना, इन सबमें "मैं" की बोहोत सक्रियता है। अब कोई आपसे प्रभावित किस प्रकार हो रहा है, ये आपके "मैं" का ही खेल है।
अब् अगर मैं इस "मैं" के वजूद की बात करूँ, तो वो कुछ इस प्रकार है :-
एक "मैं" का वजूद दूसरे "मैं" से ही है, हम हमेशा ख़ुद को दूसरों की तुलना में ही आंकते हैं, हम अपने अस्तित्व को कभी अपने परिवार से जताते हैं तो कभी दोस्तों से, तो कभी किसी और से।
जारा कल्पना कीजिये की एक ब्लैक स्पेस, उसमे सिर्फ़ आपकी एक खोई सी सोच, और किसी चीज़ का कोई अस्स्तित्व नही, अब आप ऐसी स्तिथि में ख़ुद के वजूद को कहाँ आकोगे और किस के सामने।
या फिर प्रयोग के लिए :-
किसी बच्चे के जन्म लेते ही उसे एक अंधेरे कमरे में बंद कर दीजिये और उसे बस इतनी उर्जा देते रहिये की वो बस जीवित रहे, फिर ३३ साल बाद उसे नॉएडा के गोलचक्कर या फिर दिल्ली के बदरपुर बॉर्डर बस स्टाप पर लाकर खड़ा कर दीजिये, अब शायद आप उसकी स्तिथि की कल्पना कर सकते हैं।
सोचो तो कितना अजीब लगता है की हम अपने पूरे जीवन भर जिसे कमाते रहेते हैं जिस के पीछे भागते रहेते हैं, देखा जाए तो उसका कोई अस्स्तित्व ही नही ।
मैं ये सब बोल रहा हूँ अपने अनुभव के आधार पर, मैंने इस "मैं" के सकरात्त्मक और नकारात्त्मक दोनों पेहेलुओं को देखा है महसूस किया है एक सीमा तक, ( "सकरात्त्मक" और "नकारात्त्मक" , इस स्तर पर इनकी परिभाषाएं समाज के उसी रचित ढाचे के अनुसार हैं ) ।
इस "मैं" का आकार बोहोत छोटा है, ये बस आप तक ही सीमित है । और आपके "मैं" का वजूद आप के वजूद तलक ही जीवित है।
हर इंसान बदलता है, उसकी परिभाषाएं उसके विचार नए-नए मोड़ लेते रहेते हैं, मेरे साथ भी ऐसा कई बार हुआ है की जब मेरी ख़ुद की बनाई परिभाषाएं बिल्कुल उलट गईं, और वो भी कुछ इस कदर की उनपर हसी आए। ऐसा हुआ मेरे जीवन में व्याप्त अस्थिरता के कारन, अस्थिरता मेरे विचारों में, अल्पविकसित मस्तिष्क और कुछ सक्रिय परिस्थितियां जिन्होंने कुछ ऐसे प्रश्न खड़े किए जिनका उत्तर मेरे सोच के दायेरे से बहार था, अब उन सवालों पर मेरे कुछ उत्तर मेरे कुछ निष्कर्ष उस समाये जब मैं १३ या १४ साल का था मेरे लिए बड़े लोजिकल थे और आज मैं उन ही लोजिकल चीज़ों पर हस्ता हूँ , उस स्तर से अलग कुछ प्रसन अभी भी हैं जो मेरे विचारों से परे हैं, और उनके उत्तर खोजते-खोजते मेरे विचारों में एक सीमा पर अस्थिरता आने लगती है, अस्थिरता का कारन हैं कुछ सीमित विचार , अब क्या सही क्या ग़लत नही पता, व्याप्त परेशानियों का हल हर कोई अपने सीमित विचारों में ही निकाल लेता है, कोई उस पर अपने विचार थोपता है तो कोई अपने, ये अनछुआ सच ही हमारे "मैं" को गढ़ता है।
कैसा खेल, भिन्न भिन्न लोग भिन्न भिन्न नजरिये पर यहाँ पूर्ण कोई नही, अस्थिरता व्याप्त हर "मैं" में, अब सत्य क्या, कहाँ कौन जाने।
पूरा विश्व अस्थिरता से भरा अस्थिरता पर टिका।
मुझे स्थिरता दिखती है "शून्य" में, आँखें बंद की और शून्य पर ध्यान केंद्रित किया तो स्थिरता दिखी, क्यों ??.... क्योंकि वो शून्य है इसलिए, एक निराकार शून्य जिसके आकार की तुलना हम किसी आकार से नही कर सकते, सीमित या असीमित दायेरा कितना बड़ा और उस दायेरे में क्या ??.........उफ़ ...क्या सत्य, मेरी सोच में भी अब अस्थिरता आने लगी है, मेरा मस्तिष्क भटकने लगा अपने लक्ष्य से, कोई निष्कर्ष नही दीखता ।
शायद हर "मैं" का अपना एक शून्य है पर वो एक आकार में व्याप्त है। और उस आकार में न जाने कितना सांसारिक मसाला........ह्म्म्म्म ...., किसी ने सत्य ही कहा है "आँखें बंद कर लो तो उजाला, और खोलो तो अँधेरा"।
कई लोग अपने "मैं" को ही सब कुछ मानते होंगे , और इसमें कुछ ग़लत नही, ये ही जीवन का सार है, इस से अलग कुछ भी नही। अब देखिये ना मैं भी इस लेख के जरिये आप सब के सामने एक "मैं" को प्रस्तुत कर रहा हूँ , ये भी शायद आप सभी को एक अपने ढंग में प्रभावित करे।
मैंने अपने "मैं" को बोहोत समेटा है और मेरा "मैं" मेरे परिवार और कुछ चंद लोगो तक ही सीमित है, परिवार से इसलिए क्योंकि उनसे मेरा वजूद है, और उन चंद लोगो में वो दो लोग जिन्होंने मुझे मौजूदा वास्तविकताओं का ज्ञान कराया ( मैथिलि म`ऍम और अंजलि )।
मैं इन लोगों से ही अपने वजूद को आंकता हूँ , क्योकि इनके अस्तित्व के बिना मेरा कोई अस्तित्व नही।
टिप्पणियाँ
मैं इन लोगों से ही अपने वजूद को आंकता हूँ , क्योकि इनके अस्तित्व के बिना मेरा कोई अस्तित्व नही।
sunder vichar hain aapke ....!!
thanks a lot for this review, I want your thought crashing.
I have learnt lot of from you Kapil .