बुढ़िया

वो बुढ़िया आगन की तचती धूल में उकरू बैठी थी,
घुटनो पर माथा टिकाया हुआ था,
और दोनो हाथों के पंझो को मिट्टी में धाँस रखा था,
रूखे पत्थर हो चुके हाथों को, वो काली मिट्टी की तचन भी,
ठंडी बर्फ सी महेसूस हो रही थी,
अपनी नाक से टपकते पसीने की बूँदों को गर्म सतेह पर गिर,
पानी से भाप होते हुए देखती वो बुढ़िया,
कुछ ही वक़्त में उन पसीने की बूँदों की तस्वीर बनने वाली थी,
धुआँ होने वाली थी,
पचानवे साल की पीठ तोड़ देने वाली उस उम्र के कितने ही टुकड़े हुए,
पहेला टुकड़ा जब जन्म लिया और एक लड़की की देह धरी,
दूसरा टुकड़ा आठ साल की उम्र में,
जब लगन हुआ, और स्कूल बॅग, किताबों, दवात और कलम की जगह,
तहेज़ीब, रीति, रिवाज टिका दिए गये उन कंधों पर ढोने के लिए,
तीसरा टुकड़ा जब उम्र से पहेले ही गर्भ धरा,
और चौथा जब अल्पविकसित जन्मी बcची की साँसों को,
खटिया के मचवे तले दबा दिया गया,
चार दीवारी में चॉखट से लटके पर्दों के पीछे से,
धुंधली सी दुनिया को देखती वो दो आँखें भी धुँधला गयीं,
चूल्‍हे पर धधकते लक्कड़ को बालते बालते,
जिंदगी कब मोम सी पिघल गई पता ही ना चला,
और एक दिन उन घुटनो ने दम तोड़ दिया,
कूल्हे मे मची उस गाय की हाँफती साँसों ने,
चलना छोड़ दिया.

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
very touchy

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