मकड़ी का जाल और पतंगा
आज सुबहा साइकल से ऑफीस जाते हुए मैं एक लाल-बत्ती पर रुका हुआ था, और इतने में ही मेरी नज़र पास ही खड़े एक बिजली के खंभे पर एक मकड़ी के द्वारा बुने हुए जाल पर पड़ी, जिसमें ना जाने कई पतंगे फँसे हुए थे, कुछ दम तोड़ चुके थे और कुछ अभी भी पंख फड़फड़ा रहे थे, उन्हे देखकर मुझे खुद में और उन पतंगों में कुछ खास अंतर नही दिखा, मानो वो मुझे मेरी ही तस्वीर दिखा रहे हों.
मैं उन पतंगो को कुछ देर यूँ ही देखता रहा, के तभी बत्ती हरी हो गई और मैं अपनी राह चल पड़ा.
शाम को ऑफीस से लौट-ते हुए भी मैं उस ही रास्ते से गुजरा और मेरी नज़र फिर वहीं बिजली के उस खंभे पर चली गई, मैने देखा की कुछ पतंगे रोडलाइट की रॉशनी में वहीं उस मकड़ी के जाले की आसपास भिनभिना कर उस जाल में फँसते जा रहे हैं. मानो ये पतंगे भी अपनी आदत से मजबूर हैं, जाने ईस्वर ने इन्हे रचा ही इसलिए है.
मैं भी इन पतंगों की तरह ही खुद को अपनी आदत से मजबूर सा समझता हूँ, मैं भी किसी रॉशनी को देख उसकी ओर बढ़ता हूँ, मुझे वो रॉशनी तो दिखती है पर उसके पीछे का अंधेरा और उस अंधेरे में बुना हुआ जाल नही. मैं बेबस ही उस ओर बढ़ता हूँ और जल्द ही खुद को एक जाल में फँसा हुआ पता हूँ.
सड़कों पर किसी बाँध से पानी की तरह छूटी हुई भीड़ के सैलाब में बह गया हूँ ना चाहकर भी...रुकना नामुमकिन सा लगता है....कदम ही नही टिकते ज़मीन पर....कितना भी जकडो, जमाओ ज़मीन पर, एक धक्के में उखड़ जाते हैं.
रात के सन्नाटे में जब सिर तकिया पर टिकाया और आँखें सोने को बंद हुईं, तो दिमाग़ में गूँजता ये शोर बचपन का वो मेला याद दिला देता है, जहाँ हज़ारों दुकानों ने अपने-अपने प्रचार के लिए हज़ारों भोपूं पूरी आवाज़ में चलाए होते थे, शोर का बवंडर सा लगता था वो, और मैं खुद को उस मेले में किसी रोते हुए बcचे सा महेसूस करता हूँ, जो उस मेले की भीड़ में भटक गया है, वो बcचा कितना भी रोए-चिल्लाए, वो शोर उसकी आवाज़ वहीं दबा देता है.
टिप्पणियाँ
आपकी लेखनी में संजीदगी है....
आपका मेरे ब्लॉग पर आना सुखद लगा...आप मेरी कहानी अपने फेसबुक पर शेयर कर सकते हैं मेरे नाम और ब्लॉग लिंक के साथ....मुझे खुशी होगी अगर ज्यादा लोगों की सराहना/आलोचना मुझे मिले.
शुक्रिया
अनु
सार्थक पोस्ट , बधाई .
पधारें मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर भी , आभारी होऊंगा .