Tujhse Gila main kya karun

तुझसे गिला मैं क्या करूँ,
तुझसे सिला मैं क्या करूँ,
इस नासमझ सी भीड़ में,
तू ही मिला मैं क्या करूँ,
ढूडा बोहोत खोजा बोहोत,
कितना चला उस धुल में,
थकता हुआ हारा हुआ,
ये चाह जब अंधी हुई,
ये ओढ़नी गन्दी हुई,
तब चमचमाती उस गली,
तेरा गुलाबी सुर्ख सा,
आँचल हिला मैं क्या करूँ,
कितनी कसक उस रोज़ में,
था आशियाना खोज में,
मुझको यही बिखरा हुआ,
साहिल मिला मैं क्या करूँ,
कैसी नजर में थी अगन,
कैसा सुलगता सा बदन,
मैं आग के नजदीक था,
दामन जला मैं क्या करूँ,
इस गाह में पिंजड़ा नहीं,
दाने बिखेरे किस लिए,
दो चार दाने चुंग कर,
पंछी उड़ा मैं क्या करूँ,
जो राह रौशन थी कभी,
खाबों के टिम टिम तारों से,
उस राह पर उम्मीद का,
सूरज ढला मैं क्या करूँ।

टिप्पणियाँ

alka mishra ने कहा…
प्रिय बन्धु
जय हिंद
साहित्य हिन्दुस्तानी पर पधारने के लिए धन्यवाद और ब्लॉग जगत में अपनी आमद दर्ज कराने का शुक्रिया
अगर आप अपने अन्नदाता किसानों और धरती माँ का कर्ज उतारना चाहते हैं तो कृपया मेरासमस्त पर पधारिये और जानकारियों का खुद भी लाभ उठाएं तथा किसानों एवं रोगियों को भी लाभान्वित करें

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