"बेबस उजाले" ग़ज़ल

उजाले बेबस से हैं अँधेरे गाँव में,

धुप नहीं रिसती जाड दरख्तों की छाओं में,

बे-क्स परिंदे सय्याद के हमनफस हो बैठे,

ये कौन सा रंग बिखरा है आबो-फिजाओं में,

फरमान-ए- क़त्ल-ए-आम को एहेतेसाब कौन करे,

खुदा-ए-वलायत जो ठेहेरी,

बड़े शौक से क़त्ल होतें हैं,

क्या खूब तिलिस्मियत है उनकी निगाहों में।

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