ग़ज़ल

बेवजह बिंबात कोई गम सा है,
हर् लम्हा भीगा सा है,
हर् लम्हा नम सा है,
आरजुओं के बादल ,रह रह कर घिर आतें हैं,
कितना कुछ है,
फिर भी कम सा है,
नजर फकीर की देखा, तो सब हमशक्ल दिखते हैं,
वो कोई गैर भी, हूबहू हम सा है,
खिलाड़ी ताश के पत्तों को कुछ ऐसे घुमाता है,
तमाशाई इन्सान,
कभी बदिश, कभी गुल्लू,
कभी दुक्की, कभी बेगम सा है।

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