"बचपन"

आज सोचता हूँ, के एक उम्र वो थी,
जहाँ हर् पल हस्ता था....हर् पल खिलखिलाता था.....
कितना चैन, कितना सुकून.....
मछली पकड़ने के कांटे....तो कभी कढाई वाली सुई का कितना जूनून,
नानी जी के पानदान से सुपारी चुराना,
वो मिटटी के टेलेफ़ोन से दिल लुभाना,
पीपल के पत्तों पर चटकारे लेती...वो मटर की चाट,
पोर के पास खटिया पर धीरे-धीरे सुलगती...वो जाड़ों की रात,
आम के बाग़ में...सीपियों के पीछे भागते वो नन्हे कदम,
चोपी और बबूल के काँटों के कुछ रिस्ते जखम,
नदी के ऊपर मंडराती...टिटिहिरी की आवाजें,
वो सपनों में होती...कोयल से बातें,
छोटी सी बात पर यूँ सिसक कर रो देना,
मिटटी लगे दो गालों को... आंसुओं से भिगो देना,
वो बापू की बातों को गौर से सुनना,
वो दाई का चावल से तिनकों को चुनना,
खर्भुजाना के पेंड पर...तचती वो दोपहर,
चाची की ठनकती थाली से...अंगडाई लेती वो सेहर,
वो कुँए वाली बुढ़िया की...डरावनी सी बातें,
डर के रजाई में सिमटती....वो ठंडों की रातें,
वो प्यारी सी चिड़िया...वो गंदा सा बाज़,
बग्गर में छुपे हुए...उन पिल्लों का राज़,
और नदी वाले जंगल से आती....सियारों की आवाज़,
गिट्टी फोड़, लापचुआ और गुट्टे का खेल,
काज़ल लगी दो आँखें...और बालों में सरसों का तेल,
दो बैल...एक हीरा और एक मोती,
वो गरमा गरम चाय के साथ....जुन्धरी की रोटी,
वो पीतल के बेले में...मक्के के सत्तू,
और हाँ....बोहोत तेज़ नाचता था....वो ए-१ का लट्टू,
वो चच्चा के किस्से...वो साँपों की कहानियाँ,
वो पेंड के तने पर...मामा की निशानियाँ,
वो अशोक का पेंड....वो नीम पर झूले,
वो गोबर गैस...वो मिटटी के चूल्हे,
वो मुस्कुराती शरारत....वो पिटाई का डर,
एक कहानी समेटे...वो मिटटी का घर,
आज सोचता हूँ तो वो सब याद आता है.

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