'वो तुम थे'
इस समाज की परंपराओं के,
धारणाओ के,
ना जाने कई बाँध लाँघे मैने,
हौसला तुम थे,
खुद से ना जाने,
कई सौदे कई सवाल,
और हुआ जो एक फ़ैसला,
तुम थे,
सुलगती खाहिशों ने मेरा दामन जला डाला,
मेरी वो बेपरवाह ज़िद भी तुम थे,
उस ज़िद की हद भी तुम थे,
मेरी पथराई आँखों से अब बह चुका सागर,
मुझे रोने की खाहिश थी,
मगर कुछ अश्क कम थे,
सिसकती चौखट वीरान,
उड़े फरियाद के पंछी,
ज़मीन पर जर्द पत्ते सा बचा एक नाम,
हम थे.
धारणाओ के,
ना जाने कई बाँध लाँघे मैने,
हौसला तुम थे,
खुद से ना जाने,
कई सौदे कई सवाल,
और हुआ जो एक फ़ैसला,
तुम थे,
सुलगती खाहिशों ने मेरा दामन जला डाला,
मेरी वो बेपरवाह ज़िद भी तुम थे,
उस ज़िद की हद भी तुम थे,
मेरी पथराई आँखों से अब बह चुका सागर,
मुझे रोने की खाहिश थी,
मगर कुछ अश्क कम थे,
सिसकती चौखट वीरान,
उड़े फरियाद के पंछी,
ज़मीन पर जर्द पत्ते सा बचा एक नाम,
हम थे.
टिप्पणियाँ
अच्छी रचना है.
आशीष
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नौकरी इज़ नौकरी!