"जीना भी जंग सा"

ये जीना भी क्यों है जंग सा,
खुद का ही ये लिबास, क्यों है मुझको तंग सा,
बाबा की उलझन ध्यान दिया जाए ना,
खुदा भी बदलता है अब तो रंग सा,
उलझी सी उलझन, बेक़रार बेक़ारारी,
हर दिल में छिड़ा है, गम और खुशी का रंज सा,
सब साथ लिए बैठा क्या ढूड्ता है राही,
मेरा "मैं" भी मुझसे दंग सा,
है ये बुत्फक़ीरि, है या बुतपरस्ती,
है समतल पे बैठा, कुआँ ढूड्ता है,,
अजब है खुदाई का ढंग सा,
ये जीना भी क्यों है जंग सा.

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