'उलझन'

वो पतंग के माँझे सी उलझी उलझन,
जितना भी सुलझाना चाहा उतनी ही और उलझ गई,
क्या कहूँ उंगलियाँ औट कटवा बैठा,
और एक दिन ऊभ कर पतंग के शॉक और उस डोर,
दोनो से मैने तौबा कर ली,
और मुड़कर फिर कभी,
उन सीढ़ियों की ओर नही देखा जो छत तक जातीं थी,
और अब कोई बसंत मेरे आगन नही आता,
अब तो बस सन्नाटे गुनगुनाते हैं,
पतझड़ मुस्कुराते हैं,
अक्सर वो हुए पर सवाल तो उठते हैं,
कुछ टूटे ख्वाब से घुट-ते हैं,
जब भी यादों के धागों में कोई किस्सा पिरोता हूँ,
तृष्णाओ के बीज फिर से बोता हुँ,
तो बस क्या था, मैने खुद को कहीं रख दिया,
और भूल गया,
भूल गया वो सेहेर जिसका सूरज कभी कोई चहेरा होता था,
भूल गया वो मेरे सुकून का दरिया तो तुझमें बेहेता था,
और बन गया एक परछाई,
जिसका कोई चहेरा ना था.

टिप्पणियाँ

Coral ने कहा…
खूबसूरत

http://rimjhim2010.blogspot.com/2011/05/happy-mothers-day.html

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