"ऊटी"

किसी मखमली रेशमी कपड़े पर पड़ी सिलवटों सी, पहाड़ों की वो परतें,
हरी सुनेहरी चादर में लिपटे उथले पुथले वो मैदान, चाय के बाग़ीचे और उनपर गुटों में खड़े युकलिप्टस के पतले संकरे पेंडो की श्रखलाएँ.

घिरता हुआ कोहरा और किसी दूर धुन्द्ले से पहाड़ के पीछे बुझता हुआ दिनभर की थकान से चूर वो सुर्ख नारंगी सूरज जिसकी किर्णो से रंग सोखते वो बिखरे हुए बादलों के कुछ टुकड़े और उनके पीछे कहीं छुपा हुआ धूमिल सा एक चाँद.

ये सब देखकर कभी तो याद आ रहा था बचपन का वो मेला जहाँ एक जादूगर जादू दिखाया करता था. कभी रुमाल से कबूतर निकाल दिया करता था, तो कभी हैट से खरगोश, और मैं बस भवचक्का सा रह जाता था.

तो कभी याद आ रहा था वो रंगमंच, एक सधा हुआ नाटक, अपनी अपनी भूमिका को बखूबी निभाते हुए सभी कलाकार. और हम थे दर्शक अपने-अपने कमेरो के साथ इंतेजर में की कब कोई पंछी या पानी का बुलबुला फ्रेम में आए और फोटो क्लिक किया जाए.

कई पल फ्रेम में क़ैद हुए कई तस्वीरें खीचीं गयीं और फिर उस नाटक का अह: पात्र वो सुर्ख नारंगी सूरज उस बड़े काले पहाड़ के पीछे कहीं खो गया.

रंगमंच का परदा गिर गया और दर्शक मुड़ लिए वापस अपने-अपने रिज़ॉर्ट्स की तरफ.
निःशब्द सा रह गया मैं भी, हाथ कुछ ना था पर सुकून जल रहा था इन आँखों में, दोस्त चाहते थे की मैं कुछ लिखूं पर मेरे लिए इस अनुभव को शब्दों में पिरोना मुश्किल है.
तो बस इतना कहेना चाहूँगा कुछ करीबी दोस्तों के साथ ऊटी का ये सफ़र बोहोत कुछ दे गया.

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