दिन

कभी खनकता है दिन अशर्फियों से भरी पोटली जैसा, जो शाम होते होते खर्च हो जाता है,
मैं कोशिश तो करता हूँ की कुछ सिक्के बचा लूँ ,
पर घर आकर जेबों से बस दो चुटकी लम्हों का चूरा ही निकलता है,

कभी कोई दिन उतरता है केंचुली जैसा,
कभी कोई रात आती है काले नांग जैसी,
इस डर में की ये रात मुझको डस न ले,
मैं अपने कमरे की बत्ती जला कर सोता हूँ,

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