मेरी "माँ"


ये नीँद से भरी हुई बुझी -बुझी सी आँखें ,
कुछ रंग ढूड ती हैं ,
साड़ी के पल्लू के वो रंग ,
जो कभी छूट के इन पलकों पे लग गए थे ,
जिस पल्लू से झुक कर कभी भीगे हुए चहरे को पोछा था ,
इस धुंद में तेज़ रफ्फ्तार से बहेती हुई हवाओं में ,
अपनी हवाओं की डोर थामे हुए इन हाथों को ,
लाल रंग की चूड़ियों में बंधे हुए उन रूखे हाथों की जरूरत क्यों है ,
शायद उन हाथों ने कभी इस डोर को ,
बड़ी परवाह से थमा था ,
ये धुल से भरी हुई अंधी सी सड़कें ,
जिन पर सांस लेना भी मुश्किल है ,
और जिन पर न जाने कितने ही मोड़ हैं ,
पे बढ़ते हुए इन क़दमों के पास किसी "क्यों" का जवाब नहीं ,
ये लड़खड़ाते है गिरते है,
उठ कर सम्हालते हैं ,
और बस वो सड़कें याद करते हैं ,
जो कभी स्कूल तक जाके लौट आतीं थीं ,
अपनी ही दीवारों की छाओं में ,
दीवारें ,
जिनके पीछे से दो आँखें हमेशा ,
उन सड़कों को तकते हुए मिलती थीं ।

टिप्पणियाँ

Gaurav Singh ने कहा…
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