"चाह"


हमने कभी तारों से रौशन राह ना चाही थी,
पर जिंदगी इस कदर भी काली स्याह ना चाही थी,

कोयलों की कूक से आँखे चमकती थीं,
गूँजती हमने किसी की आह ना चाही थी,

सोचता था उलझनो से जूझ ही लूँगा,
इस कदर उनकी नज़र बेपरवाहा ना चाही थी,

गाओं की गलियों को छोड़ा गाओं जब छोड़ा,
शहेर की हर एक सड़क गुमराह ना चाही थी

आदतन जो पूछ बैठे हाल साहब का,
शुक्रिया तो ना सही, दुत्तकार ना चाही थी.

टिप्पणियाँ

Dr Xitija Singh ने कहा…
आदतन जो पूछ बैठे हाल साहब का,
शुक्रिया तो ना सही, दुत्तकार ना चाही थी...
सुंदर रचना गौरव जी ...
Rishi ने कहा…
सोचता था उलझनो से जूझ ही लूँगा,
इस कदर उनकी नज़र बेपरवाहा ना चाही थी,

गाओं की गलियों को छोड़ा गाओं जब छोड़ा,
शहेर की हर एक सड़क गुमराह ना चाही थी

bahut dino baad apna blogger account khola aur haal-e-dil pe aake laga ki aana mukkamal hua...bahut sundar dost..!!

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