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"मैं"

मैं सही हूँ, मैंने कुछ ग़लत नही किया, ये मेरी सोच है, मैं ये हूँ, मैं वो हूँ और न जाने क्या-क्या। हम में से बोहोत हद तक लोग इस "मैं" ही जीते हैं, कभी बस में पीछे की सीट पर बैठा हुआ एक "मैं", कही बाज़ार में संभल के चलता एक "मैं" ,सड़क पे लडखडा के गिर पड़ने पर सेहेमता और शर्माता "मैं", तो कभी बिना टिकेट के पकड़े जाने पर बस कंडेक्टर से लड़ता "मैं", हर इन्सान में एक "मैं" । हर कोई अपने सीमित सोच और विचारों के दायेरे में ही अपने अस्स्तित्व को परोसता है, एक "मैं" ही हमें हर पल धक्का देता है ख़ुद को प्रस्तुत करने के लिए। कई महान हस्तीयों के उदाहरण, और हमारे समाज का रचित ढाचा, जो जीवन की कुछ बेसिक परिभाषाओं पर टिका है, में पनपता मस्तिष्क जिसका अंकुरण कुछ इन्ही बेसिक परिभाषाओं में होता है, इस समाज के रचित ढाचे के अनुसार ही ढलना शुरू होता है, अब इनसे परे देख पाना किसी भी साधारण के लिए बोहोत मुश्किल है। बोहोत ही साधारण सा उदाहरण-(कुम्हार एक मटके को मटके का आकार देता है तो वो मटका कहेलाता है )। "मैं" इस रचित ढाचे का ही ए
उनका आँचल जो कभी ठिया था, हमारा मुकद्दर भी कभी जिया था, कई नज़मो को का ता हमने, कई फुलकारियों को सिया था , हर ख्वाब को सच करने की ज़हेमत उठाई, अजीब लेहेजा था उन मिया का, यूँ ही एक दफा नींद में, वक्त के परिंदों को वश में किया था, पुर असरार (संदेह से भरी हुई) नज़र, महाशर(क़यामत लाने वाली ) थी, उनकी हर अदा पे हर कुछ तस्लीम(दाओ पे करना ) किया था, वो खुदा, तो रूह आफजा थी, आज रंग इंसानी है उस खुदा का .

ग़ज़ल

वक्त तपता रहा पाओं जलते रहे, जैसी सड़कें मिलीं वैसे चलते रहे, कई सौदे किए दिल की आवाज़ से, कोई इरफान थे कोई बनते रहे, भीड़ में ही खड़ा एक इंसान हूँ, ख्वाब जलते रहे ख्वाब पलते रहे, जिंदगी का बड़ा ही अजब खेल है, वो उलझती रही, हम सुलझते रहे, शेर-ऐ-शाहे सवार की फित्त्रत रही, कई धक्कों से गिर के सम्हलते रहे, तुझसे शिकवा नही कुछ शिकायत नही, ये तो अरमान हैं बस मचलते रहे।