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एक रात का ख़याल

एक शाम का गर्म पोशीदा सा ख़याल, जिसे ओढ़ कर एक रोज़, बैठूं मैं तेरे साथ और रात कर दूँ, एक रात का शोख़ सर्द सवाल, जिसे लबों से तेरे लबों पे रख दूँ, ऊँगली से नाजुक सी नंगी पीठ पर तेरी, उगाऊं यह दफ़्न रिश्ता,बढ़ न पाया जो, इस मस्नूई तेहज़ीब के खारे सख्त पानी में, तेरी नर्म सांसों के फंदों में उलझी रहे ये साँस मेरी, और तेरे गलते जिस्म की आंच में मेरा जिस्म भी पिघल जाये, बस एक सुलगती रात का ख़याल है जो बुझा दूँ, तेरी आघोश में सिमटा हुआ एक दिन जला दूँ.

"बेबस उजाले"

उजाले बेबस से हैं अँधेरे गाँव में, धुप नहीं रिसती जाड़ दरख्तों की छाओं में, बेक्स परिंदे सय्याद के हम नफस हो बैठे, ये कौन सा रंग बिखरा है फिजाओं में, अदीब तुम सही पर हमसे बुतपरस्त नहीं, तुम हमसे हार जाओगे मियां दुआओं में. वो घूरता रहा मुझे ये साँस चलती रही, असर वो अब ना रहा सनम तेरी निगाहों में,

"मकान" भाग -1

दाई की बूढ़ी हड्डियों सी खड़खड़ाती ईंटों की सड़क, रामकिसुन की चौड़ी पीठ सा चबूतरा और फिर रामबहादुर चच्चा की ऊँची बुलंद आवाज़ सा लोहे का फाटक. वहीँ फाटक से मुहतात सटा खड़ा घर का दरबान, हरा अशोक का पेंड जो चारों पेहेर, ३६५ दिन बिना थके सतर खड़ा रहता है. दरबान से नज़र हटाए और घर की दोनों बहुओं से अदब फरमाइए, बाएं पहलू पीले रंग की फुलकारीदार घुँघरू जड़ी साड़ी में सर तक पल्लू डाले खनकती घर की घरेलु बड़ी बहु 'अमलतास' और दाएं पहलू, कुंदन लाल रेशमी गोते जड़ी साड़ी में घर की जदीद छोटी बहु 'गुलमोहर'. अब नज़र उठायें और बिस्मिल्लाह सलाम करें बाबा के माथे की झुर्रियों की सी दरारें समेटे अज़ीम मकान से. पिछली पीढ़ियों की सूखी पपड़ी छोड़तीं दीवारें और खम्भे की छड़ी को टेके खड़े हुए बूढ़े छज्जे. घर के चार एहम कमरों में बस्ते थे घर के कुछ बोहोत ही खास लोग, बड़ी मम्मी का मरकाज़ी कमरा और उससे सटे अगल बगल बने बाकि के ३ कमरे. दीवान-ए-आम से होते हुए (जहाँ अक्सर हम क्रिकेट खेला करते थे) घर के एहम हिस्से दीवान-ए-खास में दाखिल होते ही ढलवान पर चार कदम की एक छोटी चढ़ाई के बाद बाएं हाथ पर खुलता है बाबा का कमरा

"मुकम्मल"

रात जब ख्वाब के सीने पे रखा सर मैंने, तेरी आगोश की गर्मी सी कुछ महसूस हुई, रात जब दूधिया कोहरे ने छुआ चेहरा मेरा, तेरे हाथों की शोख नरमी सी महसूस हुई, मुझे मालूम है की तू मुझे मुकम्मल नहीं, तभी तो अक्सर तुझे ख्वाब में जी लेता हूँ, मेरे होठों पे रखी बात तू कह देती है, तेरे सीने में जमा दर्द मैं छू लेता हूँ.