संदेश

अक्तूबर 9, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
तेरा नखरा कहूँ क्यों शूल सा है, ये दिल हमारा नाजुक सा है, फूल सा है, पुरवा में पश्चिम की ओर कदम ले मुट्ठी में भर-भर के उडाते हो, हमारा मुकद्दर तुम्हारे हाथों से उड़ती धूल सा है, मैं अपनी सुना_सुना के थक गया, वो सुनता ही नहीं, वो इस दुनियादारी में बड़ा मशगूल सा है, थक के गिर ही पड़ा मैं तो पीछे हटा, वो न जाने किस तलब में तूल सा है, जब गुजर ही गया अपने अंजाम से, अब नज़र आ रहा है की मेरे हाथों में ये क्या भूल सा है।
क़द्र थोडी करो इतनी अच्छी नही, छवि सयानी हुई अब वो बच्ची नहीं, क्या हुआ जो गिरी उसको ठोकर लगी, इस शेहेर की जो सड़कें हैं अच्छी नहीं, पवन पुत्रों का युग कोई सतयुग हुआ, आज आवोहवा से दुपट्टा उड़ा, उसकी गलती नहीं, उफ़ ये १६ वीं सदी के विचारों की गठरी, इसको नीचे धरो, सदी २१ वीं हुई अब ये काँधे तुम्हारे फलतीं नहीं, क्यों गला फाड़ते हो कोई सुनता नहीं, आज तुम जैसों की कोई चलती नहीं, आज पानी यही हर बदन को लगा, एक तुम्हारी ही दाल गलती नहीं, कितना रौशन हुआ शब्-ऐ-माहौल है, क्यो तुम्हारे ही घर में बिजली नही, सूखे तिनके घरौंदों के चुभने लगे, इनको माचिस लगाओ स्वाहा करो, आज इच्छाओं का है ठिकाना कहीं, उन सूखे घरौंदों में पलती नहीं।