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एक रात का ख़याल

एक शाम का गर्म पोशीदा सा ख़याल, जिसे ओढ़ कर एक रोज़, बैठूं मैं तेरे साथ और रात कर दूँ, एक रात का शोख़ सर्द सवाल, जिसे लबों से तेरे लबों पे रख दूँ, ऊँगली से नाजुक सी नंगी पीठ पर तेरी, उगाऊं यह दफ़्न रिश्ता,बढ़ न पाया जो, इस मस्नूई तेहज़ीब के खारे सख्त पानी में, तेरी नर्म सांसों के फंदों में उलझी रहे ये साँस मेरी, और तेरे गलते जिस्म की आंच में मेरा जिस्म भी पिघल जाये, बस एक सुलगती रात का ख़याल है जो बुझा दूँ, तेरी आघोश में सिमटा हुआ एक दिन जला दूँ.