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मकड़ी का जाल और पतंगा

आज सुबहा साइकल से ऑफीस जाते हुए मैं एक लाल-बत्ती पर रुका हुआ था, और इतने में ही मेरी नज़र पास ही खड़े एक बिजली के खंभे पर एक मकड़ी के द्वारा बुने हुए जाल पर पड़ी, जिसमें ना जाने कई पतंगे फँसे हुए थे, कुछ दम तोड़ चुके थे और कुछ अभी भी पंख फड़फड़ा रहे थे, उन्हे देखकर मुझे खुद में और उन पतंगों में कुछ खास अंतर नही दिखा, मानो वो मुझे मेरी ही तस्वीर दिखा रहे हों. मैं उन पतंगो को कुछ देर यूँ ही देखता रहा, के तभी बत्ती हरी हो गई और मैं अपनी राह चल पड़ा. शाम को ऑफीस से लौट-ते हुए भी मैं उस ही रास्ते से गुजरा और मेरी नज़र फिर वहीं बिजली के उस खंभे पर चली गई, मैने देखा की कुछ पतंगे रोडलाइट की रॉशनी में वहीं उस मकड़ी के जाले की आसपास भिनभिना कर उस जाल में फँसते जा रहे हैं. मानो ये पतंगे भी अपनी आदत से मजबूर हैं, जाने ईस्वर ने इन्हे रचा ही इसलिए है. मैं भी इन पतंगों की तरह ही खुद को अपनी आदत से मजबूर सा समझता हूँ, मैं भी किसी रॉशनी को देख उसकी ओर बढ़ता हूँ, मुझे वो रॉशनी तो दिखती है पर उसके पीछे का अंधेरा और उस अंधेरे में बुना हुआ जाल नही. मैं बेबस ही उस ओर बढ़ता हूँ और जल्द ही खुद को एक जा