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अप्रैल 16, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तिनका

हर् रोज़ कुछ सोचता हूँ, हर् रोज़ कुछ पन्ने भरता हूँ, इस गुमनाम माहौल को नाम देती कुछ लकीरें हर् रोज़ पन्नों पर खिचती हैं, कभी यूँ ही बैठे हुए कहीं किसी बस स्टॉप पर खड़े कुछ धुन्द्लाये से चहरे याद आ जाते हैं, तो कभी फुटपाथ पर भागते हुए कुछ क़दमों की आहट घर की सीढियों पर दौड़ जाती है, कभी फ़ोन पर कुछ पुराने दोस्तों से बात करते हुए आज की कुछ नई बातें होटों पर मचल उठतीं हैं, तो कभी रात खाब में कुछ बीती हुई बातें पलकों पर बिजली के जैसे कौंध जाती हैं, कभी कोई बात हुई तो हलकी सी मुस्कान छिटक जाती है चहरे पर, तो कभी किसी मंजर से दिल घबरा उठता है। साथ के कुछ नए चेहेरों के साथ बैठ कर अक्सर यूँ ही बिन्बात हसना, तो कभी मिले वक़्त कमरे के किसी कोने में बैठ कर कुछ अपनों को याद कर रोना और मुस्कुराना, बस यूँ ही हर् दिन गुजरता है, वक़्त की बहेती हवाओं के साथ किसी सूखे हुए तिनके की त रा बस बह रहा हूँ, हज़ारों सवालों के साथ, बेचैन अकेला, यूँ तो सहारा है कुछ अपनों का, और कुछ ख्वाब साथ हैं, जो अपने होकर भी अपने नहीं, जो पास होकर भी पास नहीं, एक धुंदली सी उम्मीद है इन निदासी आखों में, जो आगे चलने को मजबूर सा