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अगस्त 7, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दिन

कभी खनकता है दिन अशर्फियों से भरी पोटली जैसा, जो शाम होते होते खर्च हो जाता है, मैं कोशिश तो करता हूँ की कुछ सिक्के बचा लूँ , पर घर आकर जेबों से बस दो चुटकी लम्हों का चूरा ही निकलता है, कभी कोई दिन उतरता है केंचुली जैसा, कभी कोई रात आती है काले नांग जैसी, इस डर में की ये रात मुझको डस न ले, मैं अपने कमरे की बत्ती जला कर सोता हूँ,