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छोटी सी बात

क्यों छोटी सी बात लिए फिरता है तू, लम्हों की खैरात लिए फिरता है तू, पतझड़ में विकराल विटप ने भी अपने पत्ते त्यागे, सावन की सौगात लिए फिरता है तू, देखो क्या सैलाब उठा है, तिनका तिनका बह जाए, रिमझिम से ज़ज्बात लिया फिरता है तू, मतलब हो बेमतलब हो, उनकी रुतबा और हुआ, बिन बातों की बात लिए फिरता है तू, मतलब की दुनिया ये सारी, किसने किसके घाओ भरे, सीने पर आघात लिए फिरता है तू, क्यों छोटी सी बात लिए फिरता है तू

बुढ़िया

वो बुढ़िया आगन की तचती धूल में उकरू बैठी थी, घुटनो पर माथा टिकाया हुआ था, और दोनो हाथों के पंझो को मिट्टी में धाँस रखा था, रूखे पत्थर हो चुके हाथों को, वो काली मिट्टी की तचन भी, ठंडी बर्फ सी महेसूस हो रही थी, अपनी नाक से टपकते पसीने की बूँदों को गर्म सतेह पर गिर, पानी से भाप होते हुए देखती वो बुढ़िया, कुछ ही वक़्त में उन पसीने की बूँदों की तस्वीर बनने वाली थी, धुआँ होने वाली थी, पचानवे साल की पीठ तोड़ देने वाली उस उम्र के कितने ही टुकड़े हुए, पहेला टुकड़ा जब जन्म लिया और एक लड़की की देह धरी, दूसरा टुकड़ा आठ साल की उम्र में, जब लगन हुआ, और स्कूल बॅग, किताबों, दवात और कलम की जगह, तहेज़ीब, रीति, रिवाज टिका दिए गये उन कंधों पर ढोने के लिए, तीसरा टुकड़ा जब उम्र से पहेले ही गर्भ धरा, और चौथा जब अल्पविकसित जन्मी बcची की साँसों को, खटिया के मचवे तले दबा दिया गया, चार दीवारी में चॉखट से लटके पर्दों के पीछे से, धुंधली सी दुनिया को देखती वो दो आँखें भी धुँधला गयीं, चूल्‍हे पर धधकते लक्कड़ को बालते बालते, जिंदगी कब मोम सी पिघल गई पता ही ना चला, और एक दिन उन घुटनो ने दम तोड़ दिया, कूल्हे मे मची उस

'उलझन'

वो पतंग के माँझे सी उलझी उलझन, जितना भी सुलझाना चाहा उतनी ही और उलझ गई, क्या कहूँ उंगलियाँ औट कटवा बैठा, और एक दिन ऊभ कर पतंग के शॉक और उस डोर, दोनो से मैने तौबा कर ली, और मुड़कर फिर कभी, उन सीढ़ियों की ओर नही देखा जो छत तक जातीं थी, और अब कोई बसंत मेरे आगन नही आता, अब तो बस सन्नाटे गुनगुनाते हैं, पतझड़ मुस्कुराते हैं, अक्सर वो हुए पर सवाल तो उठते हैं, कुछ टूटे ख्वाब से घुट-ते हैं, जब भी यादों के धागों में कोई किस्सा पिरोता हूँ, तृष्णाओ के बीज फिर से बोता हुँ, तो बस क्या था, मैने खुद को कहीं रख दिया, और भूल गया, भूल गया वो सेहेर जिसका सूरज कभी कोई चहेरा होता था, भूल गया वो मेरे सुकून का दरिया तो तुझमें बेहेता था, और बन गया एक परछाई, जिसका कोई चहेरा ना था.

"जीना भी जंग सा"

ये जीना भी क्यों है जंग सा, खुद का ही ये लिबास, क्यों है मुझको तंग सा, बाबा की उलझन ध्यान दिया जाए ना, खुदा भी बदलता है अब तो रंग सा, उलझी सी उलझन, बेक़रार बेक़ारारी, हर दिल में छिड़ा है, गम और खुशी का रंज सा, सब साथ लिए बैठा क्या ढूड्ता है राही, मेरा "मैं" भी मुझसे दंग सा, है ये बुत्फक़ीरि, है या बुतपरस्ती, है समतल पे बैठा, कुआँ ढूड्ता है,, अजब है खुदाई का ढंग सा, ये जीना भी क्यों है जंग सा.