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खाबों की दस्तक

रात कुछ बीते हुए लम्हों की दस्तक पर किवाड़ खोले तो दिन भर की थकान से चूर बुझी हुई सी पलके कांप गईं , बीते लम्हों ने कांधे से एक गठरी को उतार कर चौखट के इस पार रखा और गाँठ खोल दी, गठरी में न जाने कितनी ही यादें भरी हुई थीं, बीते लम्हे उन पतझड़ के सूखे हुए पत्तों की महक और रुंदन लाये थे, जिन्हें कभी लोन में टेहेल ते हुए यूँ ही कुछ मीठी बातो ने अनजाने में नंगे पाओं तले रौंदा था, बीते लम्हों ने मल्हार में भीगी हुई सुनसान सडको की वो ठंडक मेरे पैरों के आगे उड़ेल दी, जिस ठंडक को कभी मैंने तुम्हारी बाहों में बाहें ड़ाल कर कुछ कदम चल महसूस किया था, बीते लम्हे नदी के एक छोर पर ढलती एक शाम और कुछ गीत लाये थे, जो तुमने मेरे नाम पर लिखे और गुनगुनाये थे, बीते लम्हे आम के बाग़ में उस बचपन की अंगड़ाई, किलकारियां और उन शाखों का कम्पन लाये थे, जिन शाखों से हमने न जाने कई सीपियाँ तोड़ी, सोती हुई पलकों से खाब रिसना शुरू हुए तो आँख खुल गई, पलकों से खाब अभी भी रिस रहे थे, चादर को कसकर पकडे हुए उँगलियों की जकड़न, मनो उन लम्हों का आँचल पकडे हुए थीं, आँखे बेचैन, अँधेरे में इधर उधर ताकने लगीं, फिर मेरा वर्तमान कम