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पत्थर के साए

वो साए पत्थर के थे, दरारों से धुप छलकती थी, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी, अधूरे से मौसम थे वहां, उनकी बातें भी झूटी थीं, कभी तेज़ाब सी बारिश तो कभी चिलकती धुप में, उस घर की छतें टूटी थीं, उस दर की हालत जार थी, वो चौखट सुलगती थी, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी, उस वक़्त की चोली से, थमता कहाँ खुशियों का दामन, एक पाओं भी आ सके, छोटा सा आगन, थी सिसकियाँ ठेहेरी सी, हर् आह पलट ती थी, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी, साहिल ही जैसे सिमट के, क़दमों पे आ पड़ा, दो बूँद पानी भी नहीं, सूखा घड़ा, इच्छाएं जैसे बर्फ हों, जमके पिघलती थीं, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी।
हर रोज़ मुझे वो मिलता है, हर भोर भये, हर सांझ भये, वो सूरज की किरनी में घुल, मेरे चहरे पर खिलता है, हर रोज़ मुझे वो मिलता है, कभी-कभी जब डर जा ऊं , खुद को तनहा, वीरान पा ऊं, तो बच्चों की मुस्कानों में, गलियों में नन्हे पाओं लिए, वो ठुमक ठुमक कर चलता है, हर रोज़ मुझे वो मिलता है, है धरा वहीँ, आकाश वहीँ, क्यों हाथों तेरा हाथ नहीं, सूखे होंठों को प्यास नहीं, है कल कल सागर पास यहीं, व्याकुल तृष्णा, बेचैन ह्रदये, जब त्रिषण आग में जलता है, तब स्वर्णिम तेरा आँचल ही, हर लहर लहर में हिलता है, हर रोज़ मुझे वो मिलता है।