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अप्रैल 21, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"बेबस उजाले" ग़ज़ल

उजाले बेबस से हैं अँधेरे गाँव में, धुप नहीं रिसती जाड दरख्तों की छाओं में, बे-क्स परिंदे सय्याद के हमनफस हो बैठे, ये कौन सा रंग बिखरा है आबो-फिजाओं में, फरमान-ए- क़त्ल-ए-आम को एहेतेसाब कौन करे, खुदा-ए-वलायत जो ठेहेरी, बड़े शौक से क़त्ल होतें हैं, क्या खूब तिलिस्मियत है उनकी निगाहों में।