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दिन

कभी खनकता है दिन अशर्फियों से भरी पोटली जैसा, जो शाम होते होते खर्च हो जाता है, मैं कोशिश तो करता हूँ की कुछ सिक्के बचा लूँ , पर घर आकर जेबों से बस दो चुटकी लम्हों का चूरा ही निकलता है, कभी कोई दिन उतरता है केंचुली जैसा, कभी कोई रात आती है काले नांग जैसी, इस डर में की ये रात मुझको डस न ले, मैं अपने कमरे की बत्ती जला कर सोता हूँ,

"सोचता हूँ"

सोचता हूँ कि, एक नज़्म बुनूँ तेरे लिए, जिसे ओढ़ कर तू सर्दियों के, कई रोज़ काट दे यूँ ही, तखत पर बैठे हुए, और दो छल्ले तोड़ कर मिसरों के ग़ज़ल से, तेरे कानो में सजा दूँ, कभी जो ओढ़ते हुए, नज़्म उलझ जाये मिसरों से, और कान खिंच जाये, तोह बस 'आह' कि आवाज़ करके, मुस्कुरा देना.

"पौधा"

तेरी आँखों की खारी नमी लेकर, अपने अरमानो से थोड़ी जमीं लेकर, तुमको बिन बतलाये, मैंने रिश्ते का छोटा सा पौधा लगाया था, मुझे मालूम है की तुम बोहोत दूर रहते हो, नए रिश्ते निभाने में ज़रा मशरूफ रहते हो, पर अगर फिर भी वक़्त मिले, तो आकर देखना, उस पौधे पर अब, एक कली मुस्कुराती है.

"मरहम"

दर्द मेरा, जख्म मेरा, लहू मेरा मरहम तो हर कोई लिए बैठा है, कोई ज़हर दे मुझको, तो उसको मैं कहूं मेरा, जलाया रात भर खुद को ये दिल पिघलता नहीं अजब सी आग लिए बैठा है जुनूं मेरा, तेरे होठों की प्यासी बात सूख जानेदे, कोई खामोश लिए बैठा है सुकूं मेरा, तेरी हर फिक्र का इतना उधार काफी है, मेरे हर दर्द को मैं कब तलक कहूं तेरा,