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ग़ज़ल

हमको ये रिश्ते निभाने नहीं आते, इन आँखों को झूट छुपाने नहीं आते, कितना भी थामों फ़साने छूट जाते हैं, इन होठों को जाल बिछाने नहीं आते, हमने नयी रस्मों को ढोया बोहोत है, क्यों लौट कर रिश्ते पुराने नहीं आते, तकदीर में मेरी राह वो क्यों लिखी, जिस राह से लौट कर दीवाने नहीं आते, कुछ सोचा समझा और बस इनकार कर दिया, यूँ रेत के घर हमें बनाने नहीं आते, महेफिल में हमको ताकती नजरें, कुछ पल ठहर कर गुज़र गयीं, इन नज़रों को तीर के निशाने नहीं आते, इस कशमकश के भवर में कब तक रहोगे, क्यों तैर कर दरिया किनारे नहीं आते।

"मेरे दोस्त"

तुम सब हो तो बहाना है, वक़्त के दामन से एक मुस्कान चुरा लूँ, जिंदगी के इस मोड़ से गुजरते हुए, एक छोटा सा मीठा सा किस्सा उठा लूँ, ये धीरे धीरे जलती जिंदगी की लौ में, लम्हे मोम की तरह पिघलते हैं, कितना भी थामों इन्हें, हाथों से रेत की तरह फिसलते है, हाथों से फिसलती इस रेत का, एक छोटा सा यादों का घर ही बना लूँ, तुम सब हो तो बहाना है, वक़्त के दामन से एक मुस्कान चुरा लूँ।