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आज का भारत" (Delhi gang-rape) हवस की बाढ़ में है बह रहा आवाम, नज़र से बह रहे दो धार आँसू कौन देखेगा, जला कर घर हथेली सेकने का दौर आया है, सुलगते रह गये अरमान पानी कौन फेकेगा, कोई खूनी लिए खंजर सियासत का रहनुमा है, वोही क़ातिल वोही मुक़बीर, मुक़दमा कौन जीतेगा, मालिक की वाह वही में वो कुत्ता शेर बन बैठा, दाँतों लगा जो खून अब तो माँस नोचेगा, किलसती आबरू उसकी है घायल जिस्म भारत का, हुए मुर्दे सभी, रोएगा छाती कौन पीटेगा.
"ऊटी" किसी मखमली रेशमी कपड़े पर पड़ी सिलवटों सी, पहाड़ों की वो परतें, हरी सुनेहरी चादर में लिपटे उथले पुथले वो मैदान, चाय के बाग़ीचे और उनपर गुटों में खड़े युकलिप्टस के पतले संकरे पेंडो की श्रखलाएँ. घिरता हुआ कोहरा और किसी दूर धुन्द्ले से पहाड़ के पीछे बुझता हुआ दिनभर की थकान से चूर वो सुर्ख नारंगी सूरज जिसकी किर्णो से रंग सोखते वो बिखरे हुए बादलों के कुछ टुकड़े और उनके पीछे कहीं छुपा हुआ धूमिल सा एक चाँद. ये सब देखकर कभी तो याद आ रहा था बचपन का वो मेला जहाँ एक जादूगर जादू दिखाया करता था. कभी रुमाल से कबूतर निकाल दिया करता था, तो कभी हैट से खरगोश, और मैं बस भवचक्का सा रह जाता था. तो कभी याद आ रहा था वो रंगमंच, एक सधा हुआ नाटक, अपनी अपनी भूमिका को बखूबी निभाते हुए सभी कलाकार. और हम थे दर्शक अपने-अपने कमेरो के साथ इंतेजर में की कब कोई पंछी या पानी का बुलबुला फ्रेम में आए और फोटो क्लिक किया जाए. कई पल फ्रेम में क़ैद हुए कई तस्वीरें खीचीं गयीं और फिर उस नाटक का अह: पात्र वो सुर्ख नारंगी सूरज उस बड़े काले पहाड़ के पीछे कहीं खो गया. रंगमंच का परदा गिर गया और दर्शक मुड़

मकड़ी का जाल और पतंगा

आज सुबहा साइकल से ऑफीस जाते हुए मैं एक लाल-बत्ती पर रुका हुआ था, और इतने में ही मेरी नज़र पास ही खड़े एक बिजली के खंभे पर एक मकड़ी के द्वारा बुने हुए जाल पर पड़ी, जिसमें ना जाने कई पतंगे फँसे हुए थे, कुछ दम तोड़ चुके थे और कुछ अभी भी पंख फड़फड़ा रहे थे, उन्हे देखकर मुझे खुद में और उन पतंगों में कुछ खास अंतर नही दिखा, मानो वो मुझे मेरी ही तस्वीर दिखा रहे हों. मैं उन पतंगो को कुछ देर यूँ ही देखता रहा, के तभी बत्ती हरी हो गई और मैं अपनी राह चल पड़ा. शाम को ऑफीस से लौट-ते हुए भी मैं उस ही रास्ते से गुजरा और मेरी नज़र फिर वहीं बिजली के उस खंभे पर चली गई, मैने देखा की कुछ पतंगे रोडलाइट की रॉशनी में वहीं उस मकड़ी के जाले की आसपास भिनभिना कर उस जाल में फँसते जा रहे हैं. मानो ये पतंगे भी अपनी आदत से मजबूर हैं, जाने ईस्वर ने इन्हे रचा ही इसलिए है. मैं भी इन पतंगों की तरह ही खुद को अपनी आदत से मजबूर सा समझता हूँ, मैं भी किसी रॉशनी को देख उसकी ओर बढ़ता हूँ, मुझे वो रॉशनी तो दिखती है पर उसके पीछे का अंधेरा और उस अंधेरे में बुना हुआ जाल नही. मैं बेबस ही उस ओर बढ़ता हूँ और जल्द ही खुद को एक जा

The Amazing Spider-Man 3d

बीते शुक्रवार ही प्रकाशित हुई इस फिल्म का ज़िक्र पिछले कई दिनो से मेरे ऑफिस में चल रहा था... ऑफिस से कई लोगों ने "उर्वशी" थियेटर में शुक्रवार रात 9:30 के स्पाइडर-मेन 3डी शो के टीक्ट्स पहेले ही बुक कर लिए थे....फिल्म में मेरा पसंदीदा अभिनेता इरफ़ान ख़ान भी है ये सुनकर मैने भी उसही थियेटर में अपनी और अपने कुछ करीबी मित्रों के टीक्ट्स बुक कर लिए....और आख़िरकार हम बंगलोर के उर्वशी थियेटर के प्रांगड़ में थे...मैं और मेरे ऑफिस से करीब 24 और लोग. हम सब थियेटर के बाहर एकत्रित हुए...पार्किंग में खड़े वाहनो की कतार बता रही थी की फिल्म देखने आए हुए लोगों की संख्या बोहोत है...कुछ समये बाद सभी ने अपने-अपने 3डी ग्लासस लिए और थियेटर में प्रवेश किया....करीब 1161 सीट्स वाला ये सिनेमा हॉल खचा-खच भरा था, कुछ ही देर में हम सभी अपनी सीट्स पर थे....शोर इतना की अपनी आवाज़ भी चीखने के बाद खुद के कानों तक पोहोच रही थी. 3डी ग्लासस टूटने पर 2500/- रुपये जुर्माना होने की एक सूचना के बाद सलमान ख़ान की आने वाली फिल्म टाइगर का ट्रेलर शुरू हो गया...और शोर और ज़्यादा बढ़ गया...सलमान ख़ान के प्रेमी बंगलो

"खुद से हुई एक मुलाक़ात"

आज तन्हा अकेला वक़्त मिला तो खुद को सोचने लगा, कहेते है जब आदमी अकेला होता है तो खुद के बोहोत करीब होता है, मौका सही था तो सोचा खुद से चार बातें कर लूँ, कुछ सवाल कर लूँ कुछ जवाब माँग लूँ, पर जब खुद को सामने रखा और बैठा...तो कुछ ना पाया...मैं भी चुप था और वो भी...सन्नाटा सा छा गया...मैं भी कुछ कहेने को ढूड़ रहा था और वो भी....ना कोई अल्फ़ाज़ मेरे पास था ना उसके पास, मानो एक पारदर्शी काँच की कोई सतेह हो मेरे सामने....जो होकर भी वहाँ नही था, बस मन व्याकुल हो उठा...सोचने लगा की ये क्या कर रहा हूँ मैं...वक़्त खराब तो नही कर रहा मैं इस बेफ़िजूली के काम में. फिर मैने उस परिस्थिति को नकार दिया, मैने उसे अनदेखा कर दिया जो मेरे सामने था...और राहत फ़तेह अली ख़ान जी के द्वारा गाया हुआ एक गाना गुनगुननाए लगा, मैने लगभग आधा गाना ख़तम कर दिया पर अभी भी वो चुप था...बस मुझे बिना किसी भाव के साथ देख रहा था...जैसे उसे कुछ सुनाई ही ना दे रहा हो...बहेरा हो...कुछ ना कह रहा था वो...मानो गूंगा भी हो...पर बस कुछ है वहाँ...मैं उसके आर पार देख सकता था...उसके पीछे कुछ नही छुप रहा था... मैं फिर चुप हो गया...और

"गुड़िया"

एक गुड़िया की कहानी है ये, गुड़िया...जो किसी उम्मीद की गुलाम नही, जो सपनो की छोटी छोटी सी पर्चियाँ बनाकर, उनसे खेला करती है, इंद्रधनुष से रंग चुरा कर, ख्वाबों की तवीरें बनाती है ये गुड़िया, सूनेपन के साज़ पर गुनगुनाती, मुस्कुराती, अठखेलिया करती, अपने अरमानो की ठंडक में सिमटी, गर्म उजालों सी उजली, मैने अक्सर उसे फूंको से ज़ज्बात बुझाते देखा है, ज़िंदगी की धीमी सी मद्धम सी लॉ में मुस्कान के गर्म गर्म पोए पकते देखा है, एक ऐसी गुड़िया जो खामोसी में भी आवाज़ सुना करती है, चुप्पी से अल्फ़ाज़ बुना करती है, कल कल करती किसी नदी की एक तस्वीर, जिसकी गोद में सूरज भी शीतल हो विलीन हो जाता है, सूखे हुए दरख़्त के गर्त में, खिलती मुस्कुराती एक कली के जैसी, या आगन में सुबहा चढ़ती हुई धूप के जैसी, जिसके स्पर्श भर से ही, आगन की क्यारी में बंद मुरझाई पड़ी रिश्तों की कोंपलें खिल उठती हैं.

"चाह"

हमने कभी तारों से रौशन राह ना चाही थी, पर जिंदगी इस कदर भी काली स्याह ना चाही थी, कोयलों की कूक से आँखे चमकती थीं, गूँजती हमने किसी की आह ना चाही थी, सोचता था उलझनो से जूझ ही लूँगा, इस कदर उनकी नज़र बेपरवाहा ना चाही थी, गाओं की गलियों को छोड़ा गाओं जब छोड़ा, शहेर की हर एक सड़क गुमराह ना चाही थी आदतन जो पूछ बैठे हाल साहब का, शुक्रिया तो ना सही, दुत्तकार ना चाही थी.

नाम बताएँ आप का ?

ज़िक्र फिर हो चला है उसी बात का, मुस्कुराती हुई एक हँसी रात का, हम तमाशा हुए अपने जज़्बात का, हाल कैसे कहूँ ऐसे हालात का, बेफ़िज़ूली के आलम कही रह गये, अब मुसाफिर हूँ मैं अपने आगाज़ का, फिर उठाया है हुमको किसी शोर ने, आप आलम बताएँ गई रात का, खुद पे पहेरा लगाए हुआ क्या भला, सोच आज़ाद पंछी है आकाश का, कोई चर्चा नही सब हैं चुप क्यों भला. कोई भेद खोलो किसी राज़ का, जो हुआ बेदखल घर से रुसवा ना हो, आज घर हो चला आस्तीन साँप का, अपने होने का हुमको गुमाँ तब हुआ, जब पूंछा उन्होने "नाम क्या है आप का".