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अप्रैल 28, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ग़ज़ल

बेवजह बिंबात कोई गम सा है, हर् लम्हा भीगा सा है, हर् लम्हा नम सा है, आरजुओं के बादल ,रह रह कर घिर आतें हैं, कितना कुछ है, फिर भी कम सा है, नजर फकीर की देखा, तो सब हमशक्ल दिखते हैं, वो कोई गैर भी, हूबहू हम सा है, खिलाड़ी ताश के पत्तों को कुछ ऐसे घुमाता है, तमाशाई इन्सान, कभी बदिश, कभी गुल्लू, कभी दुक्की, कभी बेगम सा है।