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अप्रैल 26, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ग़ज़ल

हाँ मुझे गुमनाम रहेने दो, इस शक्शियत को आम रहेने दो, इन खाहिशों के दलदलों ने दम निकाला, बस अब् कोई आगाज़ रहेने दो, अब् कोई अंजाम रहेने दो, इंसानियत काफी, खुदा बनकर क्या करना, तुम बस मुझे इन्सान रहेने दो, हमने आधी उम्र भर सूरज उठाया है, अब् कुछ दिनों की शाम रहेने दो।