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ख़ुशी भाग - 4

ख़ुशी का एक और सिद्धांत है जब अक्सर लोग अपनी आज की वास्तविकता को छोड़ अपने अतीत के पर्दों में झांकते हैं और अपनी बुद्धिमत्ता के तराजू में अपने आज और कल को तोलते हैं इस विचार के साथ की अतीत के कठिन वक्त की कमी पूर्ती भविस्य में हो जाएगी, कठिन वक़्त है गुज़र जायेगा या गुज़र गया और बेहतर दिन बस कुछ कदम और दूर हैं, अतीत का कोहरा भविष्य में छट जायेगा. और इस आशा में मन को भावन करते कई युवा वयस्क में तब्दील हो गए, वयस्क अधेड़ और अधेड़ बूढ़े हो चले. जीवन सूची के विभिन्न चरणों का लेखा जोखा लिए खुशी और शोक के आडे टेढ़े गुड़ा भाग को करते करते इंसान जीना तो भूल ही गया. एक बड़े कारखाने में लगी हेवी ड्यूटी मशीन के पुर्ज़े जिन्हे घड़ी-घड़ी कसा जाता है, क्योंकि पुर्ज़ा ढीला हो जाये तो बोहोत कष्टप्रद शोर करते हैं, कारखाने का मैकेनिक अक्सर आके उन्हे चूड़ियों से फिर कस जाता है जिससे कारखाना चलता रहे. इंसान भी बस दुःख नाम के इन पुर्ज़ों को बस उम्र भर कसता रहता है जिससे की ये कारखाना भी चलता रहे.

खुशी भाग - 3

अब व्यक्ति कैसे खुश रहे जब दुर्भाग्य कुंडली पर कुंडली मारे बैठा हो, देखने वाली और सराहने वाली बात है की जन ऐसी स्तिथियों में भी खुश मिले, भले ही शर्मा जी अपनी परिस्तिथियों को कोस रहे थे पर खुश थे, खुश क्यों?? खुश थे पड़ोस के गुप्ता जी को देख कर जिनकी स्तिथि उनसे भी गई गुजरी थी, अजीब विषय है और कितना अजीब व्यवहार है इस जीव का जिसे हम इंसान कहते हैं. अब गुप्ता जी ने मई के महीने में आम ना खाकर ककड़ी क्यों खाई इसकी तो एक वजह यह भी हो सकती है की गुप्ता जी का पेट ख़राब हो, दमा लगा हुआ हो उन्हें, मैं ये दमे वाली बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि गुप्ता जी का पाखाना दिन में चार बार साफ़ होता था. अब आप लोग भले ही शर्मा जी और गुप्ता जी के बारे में सोच रहे हों पर मैं सोच रहा हूँ उस आम वाले के बारे में जिसके आम शायद कुछ कम बिके क्योंकि गुप्ता जी ने इस बार आम नहीं खाए और मैं सोच रहा हूँ उस भंगी के बारे में जिसकी कमाई गुप्ता जी के दमे ने बढ़ा दी. अब आम वाला किसे कोसे गा ?? भंगी को, गुप्ता जी को या फिर शर्मा जी को ये मैं नहीं जानता, कब कहाँ कौन सी कड़ी कैसे जुड़ जाये यह बस मष्तिष्क का खेल है और वही जनता है.

ख़ुशी : भाग-2

पिछले अध्याय से आगे बढ़ आज यह देखते हैं कि एक भौतिकवादी/धनी सोच और ख़ुशी का तालमेल कैसा बैठता है. धन है तो धनी है, जैसे जैसे धन का पारा चढ़ता है ख़ुशी भी अपेक्षाकृत बढ़ती है, पर यह हर किसी पुरुष, महिला या किन्नर इत्यादि पर पूरी तरह से लागू नहीं होता, अब ऐसा क्यों है यह आप भली भांति जानते हैं, यह रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बखूबी नमूदार है, ऐसा है आकांक्षित मन के कारन जो अक्सर आप को किसी मेहेंगी विलासित "लाल ऑडी A4" में किसी लाल बत्ती पर काले चढ़े हुए शीशों के पीछे दिख जाएगा. विलासिता में गले तक डूबे इस व्यक्ति विशेष का सुख और पानी घुटनो तक तब आ जाता है जब बगल में दाहिनी ओर एक "पीले रंग की लैंबोर्घिनी गलार्डो" आके रूकती है और दो बारी व्रूहूम...व्रूहूम...करती है, बस अब क्या व्यक्ति विशेष बस शेष रह जाता है और विशेष लाल से पीला हो जाता है. अब इस प्रकार से देखें तो ना ही लाल ऑडी A4 वाले सज्जन पूर्ण रूप से धनि और खुश हैं, ना ही पीले रंग की लैंबोर्घिनी गलार्डो वाले सज्जन क्योंकि "बुगाटी वेरोन" तो उससे भी मेहेंगी है.

खुशी - भाग 1

ख़ुशी की सापेक्षता का विवरण करें तो परिणाम तुलनात्मक आता है. जीवन की क्रमागत उन्नती को देखें तो यह एक सचेत मानसिक प्रक्रिया और एक विकसित मूल्यांकन है जो जिन्दगी कैसे जी जाये या फिर ज़िन्दगी कैसी होनी चाहिए उसके मानक तय करता है, अब इसे मैं अभिधारणा ही कहूंगा. ख़ुशी के मानक व्यक्ति विशेष के द्वारा बनाये हुए एक ग्राफ की तरह हैं जो मनमाने रूप से ऊपर और नीचे जाता रहता है. कभी कोई क्रिया, व्यक्ति या वास्तु ख़ुशी देती है तो कभी वही शोक का कारण बन जाती है. कुछ लोग कम में खुश है और कुछ लोग इसमें अपनी असफलता ढूढ़ लेते हैं की वे करोड़ों रुपये नहीं जुटा पाए. ख़ुशी एक अनिर्धारित मान्यता या अनुभूति है जिसका आंकलन एक निर्धारित सोच के साथ करना चाहिए. तभी तो कुछ लोग बुरी परिस्तिथियों में भी खुश रहते हैं और कुछ लोग अनुकूलता में भी रोते फिरते हैं, अब ऐसी खुसी के पीछे भागना भी व्यर्थ सा लगता है, दिमागी टंकड़ है सिक्का कभी चित पड़ता है तो कभी पट और कभी सीधा खड़ा हो जाता है.

"सुबह का अख़बार"

बेबसी का वो आलम जिया है कभी, जब गहरी सांसों से होती हुई आह, कोख तक उतर जाती है, ज़हन के अँधेरे कोनो में, सुबकिया लेते उजाले को टटोलती, उन रूखी हथेलियों ने छुआ है कभी, सुलगती आग में लिपटे घर, और उसके धुंए से लिपटी रूहों, की घुटन सुनी है कभी, गिड़गिड़ाती बेबसी और, हवस के क़दमों में लिपटी हुई आबरू, का उधड़ा जिस्म सेहलाया है कभी, जब भी सुबह का अख़बार उठाता हूँ, तो ये सब महसूस करता हूँ मैं.

दिन

कभी खनकता है दिन अशर्फियों से भरी पोटली जैसा, जो शाम होते होते खर्च हो जाता है, मैं कोशिश तो करता हूँ की कुछ सिक्के बचा लूँ , पर घर आकर जेबों से बस दो चुटकी लम्हों का चूरा ही निकलता है, कभी कोई दिन उतरता है केंचुली जैसा, कभी कोई रात आती है काले नांग जैसी, इस डर में की ये रात मुझको डस न ले, मैं अपने कमरे की बत्ती जला कर सोता हूँ,

"सोचता हूँ"

सोचता हूँ कि, एक नज़्म बुनूँ तेरे लिए, जिसे ओढ़ कर तू सर्दियों के, कई रोज़ काट दे यूँ ही, तखत पर बैठे हुए, और दो छल्ले तोड़ कर मिसरों के ग़ज़ल से, तेरे कानो में सजा दूँ, कभी जो ओढ़ते हुए, नज़्म उलझ जाये मिसरों से, और कान खिंच जाये, तोह बस 'आह' कि आवाज़ करके, मुस्कुरा देना.

"पौधा"

तेरी आँखों की खारी नमी लेकर, अपने अरमानो से थोड़ी जमीं लेकर, तुमको बिन बतलाये, मैंने रिश्ते का छोटा सा पौधा लगाया था, मुझे मालूम है की तुम बोहोत दूर रहते हो, नए रिश्ते निभाने में ज़रा मशरूफ रहते हो, पर अगर फिर भी वक़्त मिले, तो आकर देखना, उस पौधे पर अब, एक कली मुस्कुराती है.

"मरहम"

दर्द मेरा, जख्म मेरा, लहू मेरा मरहम तो हर कोई लिए बैठा है, कोई ज़हर दे मुझको, तो उसको मैं कहूं मेरा, जलाया रात भर खुद को ये दिल पिघलता नहीं अजब सी आग लिए बैठा है जुनूं मेरा, तेरे होठों की प्यासी बात सूख जानेदे, कोई खामोश लिए बैठा है सुकूं मेरा, तेरी हर फिक्र का इतना उधार काफी है, मेरे हर दर्द को मैं कब तलक कहूं तेरा,

"तेरा नूर"

कमर से खोल कर, तेरी बाहों के फंदे, मेरी खामोश एक हलकी सी, करवट को छुपाकर, पलकों पर रख दूंगा, सुबह की ओस के दो मोती, चेहरे को भर कर ओख में, जैसे सुनहरी झील का पानी, पुकारूंगा मैं तेरा नाम की जैसे, कली को चूमती है सेहर की धुप, छूकर मेरी आवाज़ जब तुम, धीरे से अपनी आँखें खोलोगे, तेरे उस नूर से मैं भी हसीं हो जाऊंगा.

Umra

रूखी-रूखी पीठ उमर की नाखूनो से छीले, चुटकी काटे सुन्न बदन पर अंग पड़ गये नीले, झाँकर जैसे सीक जिस्म पर कपड़े ढीले-ढीले, रिश्तों के ये घाओ ज़ेहेन पर अरमानो से सीले, जिगर में गहेरी धस ती जाएँ तानो की ये कीलें, कैसे पीलूँ घूट सुकून का एक मर्तबा जीले, तचती धरती कंकड़ पत्थर पावं पड़ गये नीले, अब तो कैसे पार ही होंगे उचे-उचे टीले.