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ग़ज़ल

बेवजह बिंबात कोई गम सा है, हर् लम्हा भीगा सा है, हर् लम्हा नम सा है, आरजुओं के बादल ,रह रह कर घिर आतें हैं, कितना कुछ है, फिर भी कम सा है, नजर फकीर की देखा, तो सब हमशक्ल दिखते हैं, वो कोई गैर भी, हूबहू हम सा है, खिलाड़ी ताश के पत्तों को कुछ ऐसे घुमाता है, तमाशाई इन्सान, कभी बदिश, कभी गुल्लू, कभी दुक्की, कभी बेगम सा है।

ग़ज़ल

हाँ मुझे गुमनाम रहेने दो, इस शक्शियत को आम रहेने दो, इन खाहिशों के दलदलों ने दम निकाला, बस अब् कोई आगाज़ रहेने दो, अब् कोई अंजाम रहेने दो, इंसानियत काफी, खुदा बनकर क्या करना, तुम बस मुझे इन्सान रहेने दो, हमने आधी उम्र भर सूरज उठाया है, अब् कुछ दिनों की शाम रहेने दो।

"बेबस उजाले" ग़ज़ल

उजाले बेबस से हैं अँधेरे गाँव में, धुप नहीं रिसती जाड दरख्तों की छाओं में, बे-क्स परिंदे सय्याद के हमनफस हो बैठे, ये कौन सा रंग बिखरा है आबो-फिजाओं में, फरमान-ए- क़त्ल-ए-आम को एहेतेसाब कौन करे, खुदा-ए-वलायत जो ठेहेरी, बड़े शौक से क़त्ल होतें हैं, क्या खूब तिलिस्मियत है उनकी निगाहों में।

तिनका

हर् रोज़ कुछ सोचता हूँ, हर् रोज़ कुछ पन्ने भरता हूँ, इस गुमनाम माहौल को नाम देती कुछ लकीरें हर् रोज़ पन्नों पर खिचती हैं, कभी यूँ ही बैठे हुए कहीं किसी बस स्टॉप पर खड़े कुछ धुन्द्लाये से चहरे याद आ जाते हैं, तो कभी फुटपाथ पर भागते हुए कुछ क़दमों की आहट घर की सीढियों पर दौड़ जाती है, कभी फ़ोन पर कुछ पुराने दोस्तों से बात करते हुए आज की कुछ नई बातें होटों पर मचल उठतीं हैं, तो कभी रात खाब में कुछ बीती हुई बातें पलकों पर बिजली के जैसे कौंध जाती हैं, कभी कोई बात हुई तो हलकी सी मुस्कान छिटक जाती है चहरे पर, तो कभी किसी मंजर से दिल घबरा उठता है। साथ के कुछ नए चेहेरों के साथ बैठ कर अक्सर यूँ ही बिन्बात हसना, तो कभी मिले वक़्त कमरे के किसी कोने में बैठ कर कुछ अपनों को याद कर रोना और मुस्कुराना, बस यूँ ही हर् दिन गुजरता है, वक़्त की बहेती हवाओं के साथ किसी सूखे हुए तिनके की त रा बस बह रहा हूँ, हज़ारों सवालों के साथ, बेचैन अकेला, यूँ तो सहारा है कुछ अपनों का, और कुछ ख्वाब साथ हैं, जो अपने होकर भी अपने नहीं, जो पास होकर भी पास नहीं, एक धुंदली सी उम्मीद है इन निदासी आखों में, जो आगे चलने को मजबूर सा

अब् मुझे कोई इंतज़ार कहाँ

रूखे से होंटों पर कोई बात भटकती है, उनके पेहेलू में गई वो रात खटकती है, बरसों बीते फिजाओं का कोई ख़त न आया, गुलदानो में अब् ख़ाक महेकती है, फर्श पर गिर के कोई किस्सा टूटता सा है, खिड़की के शीशों पे जब भी कोई आह चटकती है, मौसम भी सावन की बूँदें भूल गया, आगन में बस धूप बरसती है, पंछी भी इस चौखट से रुसवा रुक्सत, मुंडेरों पर कोई तीस केहेक्ति है, रूखे से होटों पर कोई बात भटकती है।