संदेश

अगस्त 6, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"सोचता हूँ"

सोचता हूँ कि, एक नज़्म बुनूँ तेरे लिए, जिसे ओढ़ कर तू सर्दियों के, कई रोज़ काट दे यूँ ही, तखत पर बैठे हुए, और दो छल्ले तोड़ कर मिसरों के ग़ज़ल से, तेरे कानो में सजा दूँ, कभी जो ओढ़ते हुए, नज़्म उलझ जाये मिसरों से, और कान खिंच जाये, तोह बस 'आह' कि आवाज़ करके, मुस्कुरा देना.

"पौधा"

तेरी आँखों की खारी नमी लेकर, अपने अरमानो से थोड़ी जमीं लेकर, तुमको बिन बतलाये, मैंने रिश्ते का छोटा सा पौधा लगाया था, मुझे मालूम है की तुम बोहोत दूर रहते हो, नए रिश्ते निभाने में ज़रा मशरूफ रहते हो, पर अगर फिर भी वक़्त मिले, तो आकर देखना, उस पौधे पर अब, एक कली मुस्कुराती है.