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'वो तुम थे'

इस समाज की परंपराओं के, धारणाओ के, ना जाने कई बाँध लाँघे मैने, हौसला तुम थे, खुद से ना जाने, कई सौदे कई सवाल, और हुआ जो एक फ़ैसला, तुम थे, सुलगती खाहिशों ने मेरा दामन जला डाला, मेरी वो बेपरवाह ज़िद भी तुम थे, उस ज़िद की हद भी तुम थे, मेरी पथराई आँखों से अब बह चुका सागर, मुझे रोने की खाहिश थी, मगर कुछ अश्क कम थे, सिसकती चौखट वीरान, उड़े फरियाद के पंछी, ज़मीन पर जर्द पत्ते सा बचा एक नाम, हम थे.

ILLUSION of LIFE

नज़र से परे नज़र कुछ नही आता, बोहोत कुछ आता है, मगर हुमको कुछ नही आता, अपनी हसरत को इस उम्मीद में मीनार कर लिया, कुछ तो भाए गा, मगर हुमको कुछ नही भाता.

"बचपन"

आज सोचता हूँ, के एक उम्र वो थी, जहाँ हर् पल हस्ता था....हर् पल खिलखिलाता था..... कितना चैन, कितना सुकून..... मछली पकड़ने के कांटे....तो कभी कढाई वाली सुई का कितना जूनून, नानी जी के पानदान से सुपारी चुराना, वो मिटटी के टेलेफ़ोन से दिल लुभाना, पीपल के पत्तों पर चटकारे लेती...वो मटर की चाट, पोर के पास खटिया पर धीरे-धीरे सुलगती...वो जाड़ों की रात, आम के बाग़ में...सीपियों के पीछे भागते वो नन्हे कदम, चोपी और बबूल के काँटों के कुछ रिस्ते जखम, नदी के ऊपर मंडराती...टिटिहिरी की आवाजें, वो सपनों में होती...कोयल से बातें, छोटी सी बात पर यूँ सिसक कर रो देना, मिटटी लगे दो गालों को... आंसुओं से भिगो देना, वो बापू की बातों को गौर से सुनना, वो दाई का चावल से तिनकों को चुनना, खर्भुजाना के पेंड पर...तचती वो दोपहर, चाची की ठनकती थाली से...अंगडाई लेती वो सेहर, वो कुँए वाली बुढ़िया की...डरावनी सी बातें, डर के रजाई में सिमटती....वो ठंडों की रातें, वो प्यारी सी चिड़िया...वो गंदा सा बाज़, बग्गर में छुपे हुए...उन पिल्लों का राज़, और नदी वाले जंगल से आती....सियारों की आवाज़, गिट्टी फोड़, लापचुआ और गुट्टे का खेल, काज़

"हर् कोई एक में ही तमाम मिलता है"....

हर् कोई एक में ही तमाम मिलता है, जहाँ भी नजर डाली, जमीं से जुडा हुआ एक आसमान मिलता है, गुनाहों पे उनके उन्हें बच्चा न बोलो, नादान सी बातों में सारा जहाँ मिलता है, आओ गाँव वालों अपनी फसलें बचाओ, ठाकुर जी का घोडा बेलगाम मिलता है, कितना पुकारा प्रभु तुम क्यों ना आये, हर् कोई जपता यहाँ राम-राम मिलता है .

" I " an Article

"I" I am right, I did not do anything wrong, I am this, I am that and God knows what. Almost everyone keeps living in this bubble of " I ", which they have created around themselves, sometimes this "I" finds itself on the last seat of the Bus, sometimes walking in the middle of the market, sometimes feeling shy being falling on the road, and sometimes this "I" is with Bus conductor when caught without ticket. SO many " I's "......" I " in every person. Every person tries to represent his " I " from with in his own limited sphere of thoughts, and actually this " I " pushes us to present our self to the surroundings. A mind evolving on the bases of some orthodox definitions, which have created the structure of our society, always finds it very difficult to see beyond these high walls. For an Example:- A potter gives a Pot its shape and from this shape it gets its definition, and its called

"दिल के बोल"

देखो जिंदगी ख़ाक हुई ना, फिर वोही बात हुई ना, एक रिश्ते से खिलवाड़ किया, जो टूटा तो आवाज़ हुई ना, माना के वो दिन गुलशन थे, अब् पतझड़ हर् एक रात हुई ना, दिल-ए-नादाँ को सुकून मिला ना, बेचैनी बिन बात हुई ना, ना कुछ सोचा ना कुछ भाला, एक चिंगारी से आग हुई ना, एक हाड़ मॉस की लड़की को, तुम खुदा नवाज़ा करते थे, लो अब् वोही जल्लाद हुई ना।

ग़ज़ल

हमको ये रिश्ते निभाने नहीं आते, इन आँखों को झूट छुपाने नहीं आते, कितना भी थामों फ़साने छूट जाते हैं, इन होठों को जाल बिछाने नहीं आते, हमने नयी रस्मों को ढोया बोहोत है, क्यों लौट कर रिश्ते पुराने नहीं आते, तकदीर में मेरी राह वो क्यों लिखी, जिस राह से लौट कर दीवाने नहीं आते, कुछ सोचा समझा और बस इनकार कर दिया, यूँ रेत के घर हमें बनाने नहीं आते, महेफिल में हमको ताकती नजरें, कुछ पल ठहर कर गुज़र गयीं, इन नज़रों को तीर के निशाने नहीं आते, इस कशमकश के भवर में कब तक रहोगे, क्यों तैर कर दरिया किनारे नहीं आते।

"मेरे दोस्त"

तुम सब हो तो बहाना है, वक़्त के दामन से एक मुस्कान चुरा लूँ, जिंदगी के इस मोड़ से गुजरते हुए, एक छोटा सा मीठा सा किस्सा उठा लूँ, ये धीरे धीरे जलती जिंदगी की लौ में, लम्हे मोम की तरह पिघलते हैं, कितना भी थामों इन्हें, हाथों से रेत की तरह फिसलते है, हाथों से फिसलती इस रेत का, एक छोटा सा यादों का घर ही बना लूँ, तुम सब हो तो बहाना है, वक़्त के दामन से एक मुस्कान चुरा लूँ।

ग़ज़ल

बेवजह बिंबात कोई गम सा है, हर् लम्हा भीगा सा है, हर् लम्हा नम सा है, आरजुओं के बादल ,रह रह कर घिर आतें हैं, कितना कुछ है, फिर भी कम सा है, नजर फकीर की देखा, तो सब हमशक्ल दिखते हैं, वो कोई गैर भी, हूबहू हम सा है, खिलाड़ी ताश के पत्तों को कुछ ऐसे घुमाता है, तमाशाई इन्सान, कभी बदिश, कभी गुल्लू, कभी दुक्की, कभी बेगम सा है।

ग़ज़ल

हाँ मुझे गुमनाम रहेने दो, इस शक्शियत को आम रहेने दो, इन खाहिशों के दलदलों ने दम निकाला, बस अब् कोई आगाज़ रहेने दो, अब् कोई अंजाम रहेने दो, इंसानियत काफी, खुदा बनकर क्या करना, तुम बस मुझे इन्सान रहेने दो, हमने आधी उम्र भर सूरज उठाया है, अब् कुछ दिनों की शाम रहेने दो।

"बेबस उजाले" ग़ज़ल

उजाले बेबस से हैं अँधेरे गाँव में, धुप नहीं रिसती जाड दरख्तों की छाओं में, बे-क्स परिंदे सय्याद के हमनफस हो बैठे, ये कौन सा रंग बिखरा है आबो-फिजाओं में, फरमान-ए- क़त्ल-ए-आम को एहेतेसाब कौन करे, खुदा-ए-वलायत जो ठेहेरी, बड़े शौक से क़त्ल होतें हैं, क्या खूब तिलिस्मियत है उनकी निगाहों में।

तिनका

हर् रोज़ कुछ सोचता हूँ, हर् रोज़ कुछ पन्ने भरता हूँ, इस गुमनाम माहौल को नाम देती कुछ लकीरें हर् रोज़ पन्नों पर खिचती हैं, कभी यूँ ही बैठे हुए कहीं किसी बस स्टॉप पर खड़े कुछ धुन्द्लाये से चहरे याद आ जाते हैं, तो कभी फुटपाथ पर भागते हुए कुछ क़दमों की आहट घर की सीढियों पर दौड़ जाती है, कभी फ़ोन पर कुछ पुराने दोस्तों से बात करते हुए आज की कुछ नई बातें होटों पर मचल उठतीं हैं, तो कभी रात खाब में कुछ बीती हुई बातें पलकों पर बिजली के जैसे कौंध जाती हैं, कभी कोई बात हुई तो हलकी सी मुस्कान छिटक जाती है चहरे पर, तो कभी किसी मंजर से दिल घबरा उठता है। साथ के कुछ नए चेहेरों के साथ बैठ कर अक्सर यूँ ही बिन्बात हसना, तो कभी मिले वक़्त कमरे के किसी कोने में बैठ कर कुछ अपनों को याद कर रोना और मुस्कुराना, बस यूँ ही हर् दिन गुजरता है, वक़्त की बहेती हवाओं के साथ किसी सूखे हुए तिनके की त रा बस बह रहा हूँ, हज़ारों सवालों के साथ, बेचैन अकेला, यूँ तो सहारा है कुछ अपनों का, और कुछ ख्वाब साथ हैं, जो अपने होकर भी अपने नहीं, जो पास होकर भी पास नहीं, एक धुंदली सी उम्मीद है इन निदासी आखों में, जो आगे चलने को मजबूर सा

अब् मुझे कोई इंतज़ार कहाँ

रूखे से होंटों पर कोई बात भटकती है, उनके पेहेलू में गई वो रात खटकती है, बरसों बीते फिजाओं का कोई ख़त न आया, गुलदानो में अब् ख़ाक महेकती है, फर्श पर गिर के कोई किस्सा टूटता सा है, खिड़की के शीशों पे जब भी कोई आह चटकती है, मौसम भी सावन की बूँदें भूल गया, आगन में बस धूप बरसती है, पंछी भी इस चौखट से रुसवा रुक्सत, मुंडेरों पर कोई तीस केहेक्ति है, रूखे से होटों पर कोई बात भटकती है।

पत्थर के साए

वो साए पत्थर के थे, दरारों से धुप छलकती थी, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी, अधूरे से मौसम थे वहां, उनकी बातें भी झूटी थीं, कभी तेज़ाब सी बारिश तो कभी चिलकती धुप में, उस घर की छतें टूटी थीं, उस दर की हालत जार थी, वो चौखट सुलगती थी, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी, उस वक़्त की चोली से, थमता कहाँ खुशियों का दामन, एक पाओं भी आ सके, छोटा सा आगन, थी सिसकियाँ ठेहेरी सी, हर् आह पलट ती थी, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी, साहिल ही जैसे सिमट के, क़दमों पे आ पड़ा, दो बूँद पानी भी नहीं, सूखा घड़ा, इच्छाएं जैसे बर्फ हों, जमके पिघलती थीं, झुलसी हुई सी छाओं में, एक चिड़िया बिलकती थी।
हर रोज़ मुझे वो मिलता है, हर भोर भये, हर सांझ भये, वो सूरज की किरनी में घुल, मेरे चहरे पर खिलता है, हर रोज़ मुझे वो मिलता है, कभी-कभी जब डर जा ऊं , खुद को तनहा, वीरान पा ऊं, तो बच्चों की मुस्कानों में, गलियों में नन्हे पाओं लिए, वो ठुमक ठुमक कर चलता है, हर रोज़ मुझे वो मिलता है, है धरा वहीँ, आकाश वहीँ, क्यों हाथों तेरा हाथ नहीं, सूखे होंठों को प्यास नहीं, है कल कल सागर पास यहीं, व्याकुल तृष्णा, बेचैन ह्रदये, जब त्रिषण आग में जलता है, तब स्वर्णिम तेरा आँचल ही, हर लहर लहर में हिलता है, हर रोज़ मुझे वो मिलता है।
कांच के जैसे कुछ सपने थे, कांच के जैसे टूट गए, उनकी तेज़ी तूफानी थी, हमतो पीछे छूट गए, उची हस्ती, राज़ है उनका, दरबारों में धूम रहे, लोगो को चोरों ने लूटा, हमको राजा लूट गए, हमने कैसे जेहर पिया है, मुश्किल से दो घुट गए, पत्थर से अरमा भिड बैठे, अरमा के सर फूट गए, ऐसी नादानी की हमने, बच्चा कोई भूल करे, उस दामन से जा उलझे हम, जिस दामन में शूल भरे।
हैं पैर, घिसट के चलता है, तू काफिर मुझ पर हस्ता है, क्या कदमो को मालूम नहीं, है कौन गली क्या रास्ता है, सब सूनसान खामोश पड़ा, ये किन गूगों का दस्ता है, कोई चोर घुसे तब बस्ती का, हालत बड़ा ही खस्ता है, सब कुछ देखा भला उसका, वो भोला भला बच्चा है, कुछ तो बदलू उम्मीद लिए, वो रोज़ कमर को कसता है ।