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मई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"गुड़िया"

एक गुड़िया की कहानी है ये, गुड़िया...जो किसी उम्मीद की गुलाम नही, जो सपनो की छोटी छोटी सी पर्चियाँ बनाकर, उनसे खेला करती है, इंद्रधनुष से रंग चुरा कर, ख्वाबों की तवीरें बनाती है ये गुड़िया, सूनेपन के साज़ पर गुनगुनाती, मुस्कुराती, अठखेलिया करती, अपने अरमानो की ठंडक में सिमटी, गर्म उजालों सी उजली, मैने अक्सर उसे फूंको से ज़ज्बात बुझाते देखा है, ज़िंदगी की धीमी सी मद्धम सी लॉ में मुस्कान के गर्म गर्म पोए पकते देखा है, एक ऐसी गुड़िया जो खामोसी में भी आवाज़ सुना करती है, चुप्पी से अल्फ़ाज़ बुना करती है, कल कल करती किसी नदी की एक तस्वीर, जिसकी गोद में सूरज भी शीतल हो विलीन हो जाता है, सूखे हुए दरख़्त के गर्त में, खिलती मुस्कुराती एक कली के जैसी, या आगन में सुबहा चढ़ती हुई धूप के जैसी, जिसके स्पर्श भर से ही, आगन की क्यारी में बंद मुरझाई पड़ी रिश्तों की कोंपलें खिल उठती हैं.

"चाह"

हमने कभी तारों से रौशन राह ना चाही थी, पर जिंदगी इस कदर भी काली स्याह ना चाही थी, कोयलों की कूक से आँखे चमकती थीं, गूँजती हमने किसी की आह ना चाही थी, सोचता था उलझनो से जूझ ही लूँगा, इस कदर उनकी नज़र बेपरवाहा ना चाही थी, गाओं की गलियों को छोड़ा गाओं जब छोड़ा, शहेर की हर एक सड़क गुमराह ना चाही थी आदतन जो पूछ बैठे हाल साहब का, शुक्रिया तो ना सही, दुत्तकार ना चाही थी.

नाम बताएँ आप का ?

ज़िक्र फिर हो चला है उसी बात का, मुस्कुराती हुई एक हँसी रात का, हम तमाशा हुए अपने जज़्बात का, हाल कैसे कहूँ ऐसे हालात का, बेफ़िज़ूली के आलम कही रह गये, अब मुसाफिर हूँ मैं अपने आगाज़ का, फिर उठाया है हुमको किसी शोर ने, आप आलम बताएँ गई रात का, खुद पे पहेरा लगाए हुआ क्या भला, सोच आज़ाद पंछी है आकाश का, कोई चर्चा नही सब हैं चुप क्यों भला. कोई भेद खोलो किसी राज़ का, जो हुआ बेदखल घर से रुसवा ना हो, आज घर हो चला आस्तीन साँप का, अपने होने का हुमको गुमाँ तब हुआ, जब पूंछा उन्होने "नाम क्या है आप का".