"मकान" भाग -1



दाई की बूढ़ी हड्डियों सी खड़खड़ाती ईंटों की सड़क, रामकिसुन की चौड़ी पीठ सा चबूतरा और फिर रामबहादुर चच्चा की ऊँची बुलंद आवाज़ सा लोहे का फाटक. वहीँ फाटक से मुहतात सटा खड़ा घर का दरबान, हरा अशोक का पेंड जो चारों पेहेर, ३६५ दिन बिना थके सतर खड़ा रहता है.

दरबान से नज़र हटाए और घर की दोनों बहुओं से अदब फरमाइए, बाएं पहलू पीले रंग की फुलकारीदार घुँघरू जड़ी साड़ी में सर तक पल्लू डाले खनकती घर की घरेलु बड़ी बहु 'अमलतास' और दाएं पहलू, कुंदन लाल रेशमी गोते जड़ी साड़ी में घर की जदीद छोटी बहु 'गुलमोहर'.


अब नज़र उठायें और बिस्मिल्लाह सलाम करें बाबा के माथे की झुर्रियों की सी दरारें समेटे अज़ीम मकान से. पिछली पीढ़ियों की सूखी पपड़ी छोड़तीं दीवारें और खम्भे की छड़ी को टेके खड़े हुए बूढ़े छज्जे.


घर के चार एहम कमरों में बस्ते थे घर के कुछ बोहोत ही खास लोग, बड़ी मम्मी का मरकाज़ी कमरा और उससे सटे अगल बगल बने बाकि के ३ कमरे.

दीवान-ए-आम से होते हुए (जहाँ अक्सर हम क्रिकेट खेला करते थे) घर के एहम हिस्से दीवान-ए-खास में दाखिल होते ही ढलवान पर चार कदम की एक छोटी चढ़ाई के बाद बाएं हाथ पर खुलता है बाबा का कमरा, कमरा जिसमें हनुमान जी का वास और सबसे खास बाबा जी बसते हैं. न जाने कितनी पेचीदा कहानियों को समेटे एक सादा सा कमरा.


कमरे में घुसते ही दाहिने तरफ दीवारों पर सीधे खिंचे खुले खांचे और उनपर रखा कुछ जरूरत का सामान, और दूसरी ओर जंगले से सटी रखी हुई शीशम की एक मुस्ततील मेज़ जिसपर एक लालटेन रखी रहती थी और बैठने के लिए एक ९० अंश का कोण बनाती हुई सतर खड़ी कुर्सी जिसपर बैठ कर अंशु भैया लालटेन की रौशनी में रात भर पढ़ा करते थे और नतीजतन आज अमरीका में नौकरी करते हैं, ९० अंश की बेआराम कुर्सी पर ही कोई रात भर पढ़ सकता है. जंगले के बायीं तरफ दीवार से गड़ी थी एक लकड़ी की खूंटी जिसपर बाबा के चार कपडे टंगे रहते थे.

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